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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन ६. सर्वज्ञत्व-विचार पर आरोप एवं उनकी समीक्षा
___ सर्वज्ञता-सम्बन्धी ज्ञान-युद्ध वस्तुतः बौद्धिक प्रखरता का एक अद्भुत अध्याय है जिसमें मीमांसक, जैन एवं बौद्ध सब का योग रहा है। हम यहां पर कुछ थोड़े आरोपों पर विचार करेंगे। (क) सर्वज्ञता की प्रकृति सम्बन्धी आरोप
(अ) यदि सर्वज्ञता का अर्थ सभी वस्तुओं का ऋमिक ज्ञान है तो यह असंभव है क्योंकि संसार की समस्त वस्तुओं का काल की अपेक्षा कभी लोप नहीं हो सकता, इसलिये ज्ञान सर्वदा अपूर्ण ही रहेगा।
उत्तर -"केवल-ज्ञान" क्रमिक नहीं युगपत् होता है, अतएव ऐसी कोई कठिनाई नहीं।
___ (आ) यदि सर्वज्ञ का ज्ञान युगपत् होगा तो निम्नलिखित कठिनाइयां होंगी :
(१) युगपत् ज्ञान होने से सर्वज्ञ विरोधी वस्तुओं की अनुभूति एक ही ज्ञानानुभूति से करेंगे जो सर्वथा असंगत है। अतः युगपत् भी नहीं होगा।
जैन दार्शनिकों का कहना है कि तर्कतः चाहे यह कितना ही असंगत दीखता हो किन्तु व्यवहारतः हम एक ही साथ निबिड़ अंधकार में प्रकाश की किरण देखते हैं। काले बादलों के बीच विद्युत् दीखता है। अतः दो विरोधी चीजें एक साथ दीखना संगत है।
(२) युगपत् ज्ञान सम्बन्धी दूसरी आपत्ति यह है कि यदि सर्वज्ञ केवल ज्ञान द्वारा एक क्षण में ही समस्त भूत भविष्यत् को देख लेता है तो फिर उसके लिये किसी वस्तु का ज्ञान होना बाकी नहीं रहता, अतएव वह तो अचेतन जैसा हो जायगा, चूंकि अब उसे कुछ जानना है ही नहीं।
किन्तु यह आरोप तभी सही होता है जब सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष एवं समस्त संसार दोनों का तत्क्षण विनाश हो जाता है । वस्तुतः ये दोनों तो चिरस्थायी
(३) सर्वज्ञ चूंकि रागद्वेषादि का साक्षात्कार करता है अतएव वह स्वयं रागद्वेष पूर्ण हो जाएगा और उसकी वीतराग की स्थिति समाप्त हो १. प्रमेय कमल-मार्तण्ड पृ० २५४ । २. प्रमेय कमल मार्तण्ड-पृ० २५९ । ३. प्रमेय कमल मार्तण्ड-पृ० २५४ । तत्वसंग्रह कारिका-३२४७ से ३२६१
तक में सामत और योज्ञमा (मीमांसकों की युक्तियां वर्णित हैं)। ४. आउट लाइन्स आफ जैनिज्म-मोहनलाल मेहता पृ० १०१; प्रमेय पृ०
२५४ । ५. प्रमेय कमल मार्तण्ड-२५४, तत्वसंग्रह का ३३१५ ।
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