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ज्ञान की सीमायें और सर्वज्ञता की संभावनायें
होते हैं तो युगपत या क्रम से ? यदि युग्पत माना जाए तो गलत होगा, क्योंकि जन्म-मरण एक साथ असंभव है। जो वस्तु जिस रूप में प्रतिभासित होता है उसका उसी रूप से व्यवहार होता है, जैसे नीली वस्तु का नीलरूप से । अत: सर्वज्ञ यदि प्राग्भाव (अतीत) और प्रध्वंसाभाव (अनागत) दोनों को युगपत देखता है तो यह गलत है। चूंकि दोनों का एक साथ रहना संभव नहीं । अतः युगपत् अभाव नहीं होगा। फिर दोनों की प्रतीति क्रम से भी नहीं हो सकती क्योंकि अतीत और अनागत कभी परिसमाप्त होगा ही नहीं, अतः उसकी सर्वज्ञता हो ही नहीं सकेगी।
___ जैन दार्शनिक उपर्युक्त बातों से सहमत नहीं हैं। इनका कहना है कि अभाव वहीं होता है जहां प्रमाण-पंचक की निवृत्ति होती है। फिर यह अभाव दो प्रकार का होगा-प्रसज्य प्रतिषेध या पर्युदास ।' प्रथम में आत्यन्तिक निषेध है, दूसरे में सापेक्ष निषेध । अब यदि प्रसज्य-प्रतिषेध अभाव से सर्वज्ञाभाव सिद्ध करना चाहें तो उसमें अत्यन्ताभाव अवस्तु रूप होता है। अतः उससे सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं हो सकता। किन्तु यदि पर्युदास अभाव से सर्वज्ञाभाव सिद्ध करें तो एक के निषेध से किसी का सद्भाव करना होगा । इसमें पंच-प्रमाणों के द्वारा अभाव के कथन होने पर भी भाव रूप वस्तु ही वाच्य होती है। फिर इस पर्युदास पक्ष में भी दो हेतु हो सकते हैं-प्रमाणपंचक-रहित या अन्य। यदि प्रथम स्वीकार करें तो उसमें भी दो विकल्प हो सकते हैं—सर्वथा-प्रमाण-पंचक-रहित या निषेध्य-विषय-सम्बन्धी प्रमाणपंचक-रहित । यदि प्रथम विकल्प मानें तो वह प्रमेय की सिद्धि कहां से करेगा क्योंकि प्रमाण के बिना प्रमेय सिद्ध नहीं होता। यदि ऐसा हो तो प्रमाण की कल्पना ही व्यर्थ हो जाए। किन्तु यदि दूसरे विकल्प को लें तो वह आत्मा आपकी है या सब की ? यदि अपनी मानें तो परचित्त के साथ उसका मेल नहीं, यदि सब की मानें तो सर्वज्ञ हो जाएगा। इसी तरह निषेध्य सर्वज्ञ से भिन्न जो अन्य ज्ञान अल्पज्ञ होगा यदि उसको मानेंगे तो फिर इस अन्य ज्ञान के द्वारा क्वचित् कदाचित् सर्वज्ञ का निषेध करेंगे या सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञ का निषेध करेंगे? यदि प्रथम पक्ष मानें तो इसमें किसी का विरोध नहीं; यदि द्वितीय पक्ष मानें तो सर्वज्ञता की स्वतः सिद्धि हो जाती है। १. तत्त्व-संग्रह-का. ३२४८,३२४९,३२५० । २. न्याय कुमुदचन्द्र भाग-१, पृ० ८९ । प्रमेय कमल मार्तण्ड पृ० २५०-१। ३. न्याय कुमुदचन्द्र भाग-१, पृ० ९६ ।। ४. तत्त्व-संग्रह-का. पृ० ८५०; मीमांसा --श्लोकवातिक, अभाव परिच्छेद
श्लोक १; श्लोक २७ । ५. न्याय कुमुदचन्द्र-भाग १, पृ० ९६-९७ और प्रमेय कमल मार्तण्ड पर
२६५-६८।
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