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जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन
कोई कहे कि वक्ता होने के कारण ही कोई सर्वज्ञ नहीं है तो यह स्ववचन विरोध है । जिस तरह सर्वज्ञ की असत्ता सिद्ध करने में स्ववचन विरोध है उसी प्रकार सर्वज्ञता सिद्ध करने में भी है क्योंकि जो यह कहेगा कि सब असर्वज्ञ हैं, वह तो स्वयं सर्वज्ञ सिद्ध हो जायेगा । वक्ता प्रमाण - विरोधी, प्रमाण - संगत या सामान्य तीन प्रकार के माने जाते हैं । यदि प्रमाण विरोधी वक्ता को मानें तो यह असिद्ध होगा क्योंकि सर्वज्ञ भगवान् असत्य वचन नहीं कर सकते ।' यदि प्रमाण-संगत मानें तो सर्वज्ञ भी मानना होगा क्योंकि असर्वज्ञ ही प्रमाण-विरुद्ध बोलेगा । सामान्य वक्ता मानने से हेतु अनैकान्तिक हो जायगा । यदि कोई कहे कि सभी पुरुष असर्वज्ञ हैं तो फिर कोई सर्वज्ञ बचा ही नहीं । विपक्ष से व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता इसीलिये निषेध का प्रश्न ही निरर्थक है । हां, रथ्याप्रभ में असर्वज्ञत्व एवं वक्तृत्व दोनों गुणों का समावेश कर व्यतिरेक बना लिया जाए तब पुनः स्ववचन विरोध होगा, क्योंकि सब पुरुषों की असर्वज्ञता में तो रथ्याप्रभ भी शामिल था । संक्षेप में, वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञताभाव सिद्ध होने पर व्यतिरेक सिद्ध होगा और व्यतिरेक सिद्ध होने पर असर्वज्ञत्व की सिद्धि । इस तरह चक्रक दोष होगा ।"
यदि हम कहें कि सब को सर्वज्ञ अनुपलम्भ है तो इसमें भी सबके विषय में जो जानेगा वह सर्वज्ञ सिद्ध होगा । जैमिनी कहते हैं कि अतीन्द्रिय ज्ञान और उसका धारक कोई नहीं है क्योंकि वह आकाश- कुसुम की तरह अनुपलब्ध है । लेकिन यह किसको अनुपलब्ध है, लौकिक को या अन्य किसी को ? और यह अनुपलब्धि किस हेतु से है ? - सत्ता से, पुरुषत्व से या वक्तृता से ? लेकिन इन तीनों हेतुओं को हम वेद में भी लगा सकते हैं क्योंकि वेदार्थक कोई भी उपलब्ध नहीं है । लेकिन यह स्थिति मीमांसकों के लिये अप्रिय होगी । अतः यदि वेदार्थ की सत्ता मानते हैं तो सर्वज्ञ को भी मानना ही पड़ेगा । जिस तरह प्रथम सर्वज्ञ का प्रश्न पूछा जा सकता है उसी प्रकार प्रथम वेदार्थज्ञ की भी चर्चा उठायी जा सकती है ।
(ग) उपमान
मीमांसकों का कहना है कि उपमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि संभव नहीं । क्योंकि उपमान के लिए सादृश्य चाहिए और सर्वज्ञ के सदृश प्रत्यक्ष में कोई मिलता ही नहीं, और जब उसकी प्रतीति नहीं है तो उसके सादृश्य
१. न्याय कुमुदचन्द्र भाग - १, पृ०९३, तुलना प्रमेय कमल मार्त्तण्ड पृ० ७३; सन्मति टीका पृ० ४५, स्याद्वाद रत्नाकर पृ० ३८४, प्रमेय रत्नमाला
५७ ।
२. न्याय कुमुदचन्द्र भाग - १, पृ० ९३; तुलना - न्याय विनिश्चय पृ० ५५३ । ३. तत्त्व - संग्रह पृ० ८३१ ।
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