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ज्ञान की सीमायें और सर्वज्ञता की संभावनायें
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की प्रतीति कहां से होगी ? इसके उत्तर में जैन दार्शनिक इसी तर्क को उलट कर कहते हैं कि उपमान में से सर्वज्ञताभाव सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि सर्वज्ञ के सादृश्य का कहीं अभाव दिखाई नहीं पड़ता, अतः उसका अभाव भी असिद्ध ही रहेगा ।" "सर्वज्ञ के सादृश्य" की बात करने वाले को यह समझना चाहिए कि सर्वज्ञ का वैशिष्ट्य उसके शरीर में नहीं बल्कि उसकी आत्मा में है, अतः शारीरिक सादृश्य की बात से सर्वज्ञाभाव को प्रमाणित करना हास्यास्पद है । (घ) आगम
मीमांसक आगम प्रमाण से सर्वज्ञत्व की असिद्धि करते हुए कहते हैं कि आगम या तो नित्य होगा या अनित्य । यदि हम नित्य आगम (वेद) को मानें तो उसमें सर्वज्ञत्व - सिद्धि के लिए वचन नहीं । फिर नित्य आगम को भी अनादि या सादि माना जा सकता है । यदि हम अनादि नित्य आगम को सर्वज्ञ-सिद्धि का हेतु बनायें तो यह गलत होगा, क्योंकि अनादि आगम से आदि सर्वज्ञ की सिद्धि कैसे होगी क्योंकि सर्वज्ञ तो अनेकों हैं ? और यदि नित्य आगम को सादि माना जाय तो नित्यत्व से सादित्व का आत्म-विरोध है । फिर अनित्य आत्म की बात रही, जो या तो सर्वज्ञ-प्रणीत होगा या असर्वज्ञ-प्रणीत । यदि सर्वज्ञ-प्रणीत आगम से सिद्ध करें तो अन्योन्याश्रय दोष होगा और यदि सर्वज्ञ आगम को ही प्रमाण मान लेते हैं तो फिर मेरे ही वचन को प्रमाण क्यों नहीं मान लेते, क्योंकि अप्रमाणित आगम एवं मेरे वचन में कोई अन्तर नहीं है?
(च) अर्थापत्ति
अर्थापत्ति से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि इसके लिए दीखना चाहिए, किन्तु ऐसा कोई. अतः अन्यथा - उपपत्ति से सर्वज्ञ -
सर्वज्ञ सिद्धि पृ० १३६ ; प्रमेय
किसी भी कार्य को सर्वज्ञ के बिना अनुपपन्न भी कार्य नहीं जो सर्वज्ञ के बिना नहीं होता,
१. तत्त्व-संग्रह पृ० ८३८; तुलना - बृहत पृ० २६५ ।
२. न्याय कुमुदचन्द्र भाग - १, पृ० ९४ ।
३. मीमांसा - श्लोक वार्तिक, न्याय रत्नाकर व्याख्या पृ० ८२; तत्त्व - संग्रह कारिका ३१८७ ।
४. “ हिरण्यगर्भ प्रवृत्य स सर्ववित् स लोकवित्" - यह वचन " अर्थवाद" है --- न्याय-सूत्र २/१/६४; न्याय - भाष्य पृ० १५६, अर्थ संग्रह - देखियेतत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक पृ० ४५; सन्मति टीका पृ० ९६ । स्याद्वाद रत्नाकर पृ० ३६४, शास्त्रवति समुच्चय टीका पृ० ४९ । ५. न्याय कुमुदचन्द्र भाग १, पृ० ९५ प्रमेय कमल मार्त्तण्ड पृ० २६४ । ६. तत्त्व - संग्रह - का. ३२१८ ।
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