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ज्ञान की सीमायें और सर्वज्ञता की संभावनायें
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संभव नहीं, अतः दूसरे के चित्त का अभाव हो जाएगा । यदि सविशेषण माना जाए तो इसमें सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञाभाव सिद्ध हो जाएगा लेकिन इस तरह सर्वज्ञ सर्वदा सर्वज्ञाभाव सिद्ध करने वाला स्वयं ही सर्वज्ञ होगा । लेकिन यदि अनुपलम्भ स्व-सम्बन्धी न होकर | सर्व-सम्बन्धी हो तो भी यही दोष उठेंगे । सब की सर्वज्ञ सिद्धि का अभाव तो स्वयं सर्वज्ञता है । '
" कार्यभाव" से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि धर्मादि अशेष पदार्थों के प्रतिपादक आगम तो उसके कार्यरूपी देखे ही जाते हैं। हां मीमांसक आगम की अपौरुषेयता का सिद्धान्त मानते हैं जिसे जैनों ने खंडन किया है । व्यापकाभाव से सर्वज्ञाभाव सिद्ध करना भी ठीक नहीं क्योंकि सर्वज्ञ का व्यापक " सर्वसाक्षात् - कारित्वं" है, "सर्वार्थ परिज्ञान" नहीं ।" आत्मा का सकल पदार्थों को ग्रहण करने का स्वभाव है और प्रतिबन्धक कारणों के क्षय हो जाने से सर्वज्ञता सहज संभव है ।
अब विरुद्ध - विधि ( साक्षात् या परम्परा विरोध ) से भी सर्वज्ञभाव संभव नहीं । पहले हम साक्षात् विरोध को लेते हैं तो वह विरोध यदि क्वचित् कदाचित् है तो इसके सर्वज्ञाभाव की सिद्धि नहीं होती और यदि सर्वज्ञ सर्वदा विरोध हो तो सर्वज्ञता स्वयं सिद्ध हो जाती है । परम्परा विरोध या तो सर्वज्ञ के व्यापक या कारण या कार्य के साथ होगा । यदि विरोध व्यापक का है तो वह या तो मचित् कदाचित् होगा या सर्वत्र सर्वदा का विरोध होगा । इसमें भी उपर्युक्त तर्क लागू होंगे। लेकिन विरोध यदि कारण का हो और वह क्वचित् कदाचित् हो तो उसमें सर्वज्ञ सर्वदा का विरोध नहीं किन्तु यदि सर्वज्ञ सर्वदा विरोध मानें तो यह असंभव है क्योंकि सर्वज्ञता का कारण है ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय और इसका विरोध है इसका क्षय नहीं होना, तो यह किसी आत्मा में तो रह ही सकता है लेकिन सभी में नहीं ।
कार्य विरोध भी सिद्ध नहीं होगा क्योंकि सर्वज्ञ का कार्य विरोध जानने वाला कोई आत्मज्ञ ही होगा और वह एकाध स्थान पर ही इसके कार्य का विरोध देख सकता है, सर्वज्ञ नहीं ।
वक्तृत्वादि हेतु के कारण भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं हो सकता । यदि
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१. न्याय कुमुदचन्द्र भाग - १, पृ० ८१ ।
प्रमेय कमल मार्त्तण्ड पृ० २५३-२५४ ।
२. प्रमेय रत्नमाला पृ० ५४ ।
स्याद्वाद रत्नाकर पृ० ३७० ।
प्रमेय कमल मार्त्तण्ड पृ० ७० ।
३. तत्त्व - संग्रह पृ० ८५३; स्याद्वाद रत्नाकर पृ० ३८२ ।
४. न्याय कुमुदचन्द्र भाग - १, पृ० ९३ ।
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