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________________ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन प्रत्यक्ष सर्वज्ञता का या तो क्वचित् कदाचित बाधक होगा या सर्वत्र सर्वदा बाधक होगा । यदि क्वचित कदाचित् बाधक मानें तो इसमें जैनों को कोई आपत्ति नहीं क्योंकि वे भी यह नहीं कहते कि सर्वज्ञता का ज्ञान सदा सर्वदा रहता है, किन्तु यदि योगी प्रत्यक्ष को सदा सर्वदा बाधक मान लें तो यह सदा सर्वदा जानने वाला तो स्वयं ही सर्वज्ञ होगा। साधारण प्रादेशिक ज्ञान से सकल देशवर्ती ज्ञान, यानी सर्वज्ञता का खंडन, नहीं हो सकता ।' प्रत्यक्ष की निवृत्ति से यदि उसका अभाव सिद्ध करें (क्योंकि स्वप्न में भी हम सर्वज्ञ को नहीं देखते) तो यह गलत होगा, क्योंकि प्रत्यक्ष सर्वज्ञता के ज्ञान का न तो कारण है न व्यापक है । प्रत्यक्ष के अभाव में भी वस्तु रहता है और प्रत्यक्ष की निवृत्ति से भी वस्तु विद्यमान रहता है। फिर मीमांसकों को यह पूछा जा सकता है कि सर्वज्ञताभाव केवल अपने प्रत्यक्ष की निवृत्ति से सिद्ध करते हैं या सभी के प्रत्यक्ष से ? यदि केवल अपने प्रत्यक्ष की निवृत्ति से ही सिद्ध करते हैं तो यह गलत होगा क्योंकि जिन सूक्ष्म, अन्तरित या दूरस्थ वस्तुओं का भी हमें प्रत्यक्ष नहीं होता है वे भी चीजें रहती हैं। किन्तु वे यदि सब के प्रत्यक्ष की निवृत्ति से इसको सिद्ध करते हैं तो यह "सब' के प्रत्यक्ष को जानने वाला स्वयं सर्वज्ञ होगा। (ख) अनुमान __ मीमांसकों के अनुसार सर्वज्ञत्व की सिद्धि अनुमान से भी संभव नहीं क्योंकि लिंग-लिंगी अविनाभाव सम्बन्ध नहीं। सर्वज्ञ के साथ स्वभाव या कार्यहेतु, दोनों असिद्ध हैं । सर्वज्ञ का किसी के साथ कार्य नहीं पड़ता । अतः अनुमान प्रमाण भी लागू नहीं होगा। __ जैन दार्शनिक विकल्प-पद्धति से तर्क उठाते हुए पूछते हैं कि मीमांसक सर्वज्ञ की "असत्ता" सिद्ध करना चाहते हैं या उसकी "असर्वज्ञता"। यदि सर्वज्ञ की असत्ता सिद्ध करना चाहते हैं तो वे अनुपलम्भ, विरुद्ध-विधि और वक्तृत्व इन्हीं तीनों को अपना हेतु मानेंगे । अब यदि अनुपलम्भ हेतु माना जाय तो यह कार्य व कारण या व्यापक सम्बन्धी होगा। फिर यह अनुपलम्भ या तो स्व-सम्बन्धी होगा या सर्व-सम्बन्धी। माना कि यह स्व-सम्बन्धी है तो वह निविशेषण होगा या सविशेषण । यदि निविशेषण माना गया तो सर्वज्ञभाव सिद्ध नहीं होगा क्योंकि सामान्य प्रत्यक्ष से पर-चित्त का ज्ञान १. न्याय कुमुदचन्द्र भाग-१, पृ० ८९ । २. तत्त्व-संग्रह-कारिका ३२७१-३ । ३. तत्त्व-संग्रह पृ० ८३१ । ४. स्याद्वाद रत्नाकर ३८२ । ५. तत्त्व-संग्रह पृ० ८५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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