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ज्ञान की सीमायें और सर्वज्ञता की संभावनायें
विद्यानन्द, माणिक्यनन्द, अनन्तवीर्य प्रभाचंद्र, हेमचंद्र, वादिदेवसिंह सूरि, मल्लिसेन, धर्मभूषण, यशोविजय आदि अनेक विद्वानों ने सर्वज्ञता की सिद्धि के लिए प्रमाण दिये हैं। मीमांसकों के द्वारा खंडन एवं जैन-बौद्ध दार्शनिकों के द्वारा प्रत्युत्तर भारतीय बुद्धिवाद का एक उज्ज्वल अध्याय है। हां, इसमें साम्प्रदायिक प्रतियोगिता का भाव भी कम नहीं है। (ब) श्रद्धा एवं बुद्धि को समन्वयवाची भूमिका
जैनों ने आगम एवं तर्क, हृदय एवं मस्तिष्क दोनों का समन्वय करते हुए सर्वज्ञता की मान्यता को एक धार्मिक एवं ताकिक आवश्यकता के रूप में महसूस किया है। भगवान् महावीर की सर्वज्ञता जैन धर्म के लिये श्रद्धा स्वरूप स्वीकार्य है लेकिन मानवीय सर्वज्ञता की संभावना के लिये विशुद्ध बुद्धिवादी तर्क प्रस्तुत किये गये हैं । (छ) योगशास्त्र की भूमिका
न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, तंत्र-सहित्य आदि में हम योग-शास्त्र की चर्चा पाते हैं जिसमें यौगिक नियमों से सिद्धियों की प्राप्ति बतायी गयी है। न्याय-वैशेषिक ने तो अलौकिक प्रत्यक्ष की चर्चा की है लेकिन पतंजलि ने सर्वज्ञता की स्पष्ट चर्चा की है। आधुनिक परामनोविद्या का भी इस ओर संकेत सारगर्भित है।' ६. शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर सर्वज्ञ-सिद्धि
मीमांसकों ने शास्त्रान्तर्गत षड प्रमाणों के बल पर सर्वज्ञभाव की सिद्धि का प्रबल प्रयास किया है किन्तु जैन दार्शनिकों ने भी उसी सूक्ष्मता के साथ खंडन कर सर्वज्ञ सिद्धि की है जिसका विशेष व्यवस्थित एवं विशद विवेचन अष्टसहस्री, न्यायकुमुदचंद्र, एवं प्रमेय-कमल-मार्तण्ड इन तीन जैन-न्याय के ग्रन्थों में हुआ है । अतः मीमांसा का पूर्व पक्ष एवं जैनों का उत्तर पक्ष अवलोकनीय हैं । (क) प्रत्यक्ष प्रमाण
प्रत्यक्ष अतीन्द्रियज्ञान का विषय नहीं है और वह केवल सम्बद्ध, वर्तमान एवं प्रतिनियत रूपादिगोचर होता है। जैनों का कहना है कि योगी
१. तर्क कौमुदी पृ० ९; विश्वनाथ का भाषा परिच्छेद' अधिकरण ३; पदार्थ
धर्म संग्रह पृ० १९५। २. योगसूत्र १.२; ३.४९; ४.२९ । ३. जे०बी० राइन, जी०एन०एम० टीरल, एच०एच० प्राइस, चार्ल्स, रिचेट, ____टीचनर, वेस्ट, मेयर आदि के नाम प्रख्यात हैं। ४. मीमांसा श्लोक वातिक सूत्र २ पृ० ८१; तत्त्व-संग्रह-का. ३१८६ ।
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