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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन परम्परा के बदले मैत्री, प्रमोद, करूणा, माध्यस्थ आदि पर आधारित पारिवारिक प्रेम, अनौपचारिक एवं विनम्र व्यवहार यहां के मूलाचार होंगे। यद्यपि विश्वविद्यालय का कोई अपना गणवेश नहीं होगा फिर भी वस्त्रों की सादगी, स्वच्छता पर जोर दिया जाएगा । जापान की तरह दफ्तर या वर्ग या अपने कक्ष में भी जूते-चप्पलों के साथ प्रवेश नहीं होगा ताकि स्वच्छता बनी रहे । जमीन में खुले पैरों से चलने की कुछ तो आदत हो, स्वच्छ स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह ठीक है। हमेशा मोजे एवं जूतों में पैरों को गिरफ्तार रखने की जरूरत ही क्या है ?
विश्वविद्यालय की स्वायत्तता का समुचित आदर होना चाहिये । स्वतंत्रता में अहिंसा है, परतंत्रता एवं दमन में हिंसा । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने गाया है कि "हे प्रभो हमें उस देश में ले चलो जहां संकीर्णताओं से हमारा मन मुक्त हो और हमारा सिर ऊंचा हो। स्वायत्तता के बिना विश्वविद्यालय एक बौद्धिक मरूस्थल है जहां सृजन अवरुद्ध हो जाता है । शिक्षा जब सत्ता या सम्पत्ति की दासी बन जाती है तो वह निस्तेज व निर्जीव हो जाती है। पंथ, सम्प्रदाय या मतवाद का बंधन भी बंधन ही होता। स्वतंत्र होकर अपने विचारों की अभिव्यक्ति का यहां पूर्ण अवसर देना ही अहिंसा देवी की आराधना है । यही तो अनेकांत है । सत्य के अनेक रूप एवं आयाम होते हैं । लेकिन विचार की स्वतंत्रता एवं विविधता से आचरण की पवित्रता एवं संस्थागत मान्य आचार संहिता का कोई विरोध नहीं। अध्यापकों एवं अन्य सेवकों की सेवा संहिता का आदर भी होना चाहिये लेकिन संस्था की आचार-संहिता का अनुपालन भी।
जैन विश्वभारती वस्तुतः अहिंसा-पीठ के रूप में विकसित होगी। भारतीय संस्कृति का विश्व-संस्कृति को यही अवदान है । प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नल्ड टायनबी शायद भारतीय आध्यात्मिक धरोहर को संकेत करते हुए कहते हैं कि "मानवता के इस अभूतपूर्व संकट के समय भारत का अध्यात्म
और इसकी अहिंसा ही एकमात्र विकल्प है।" जैन विश्वभारती अध्यात्म को विज्ञान से एवं अहिंसा को मनोविज्ञान से जोड़कर एक नयी दिशा देगा । नोबल पुरस्कार विजेता अलेक्सिस कैरेल ने जिस "मानव-विज्ञान की अपनी पुस्तक 'मैन द अननोन" में चर्चा की है, जैन विश्वभारती उसे "जीवनविज्ञान" एवं साधन स्वरूप "प्रेक्षाध्यान" के रूप में विकसित करने को प्रतिबद्ध है । अहिंसा की साधना और उसके प्रयोग की दिशा में सांस्कृतिक नेतृत्व करना इसका मुख्य प्रयोजन होगा। अहिंसा के लिए विश्व में जितने प्रयोग हो रहे हैं, उनका समन्वय एवं उससे सहयोग करना इसका अभीष्ट होगा । शांति के ऊपर यहां आयोजित पिछले दो अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों से ऐसा आत्मविश्वास जगा भी है। आगम एवं प्राकृत-संस्कृत वाङ्मय के
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