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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
की हैं जहां राग-द्वेष का उच्छेद एवं वीतरागत्व प्रकट होता हैं ।
___ लोक-विद्या के अनुसार जीव और अजीव या जड़ और चेतन दो तत्त्व है । संसार काल में चेतन के ऊपर एकमात्र जड़ (परामणु पुंज पुद्गल) हैं । चेतन तत्त्व की सहज शक्तियां असीम हैं किन्तु जड़ और चेतन के पारस्परिक प्रभाव क्षेत्र ही लोक हैं और उससे छुटकारा पाना ही लोकान्त है। आत्मतत्त्व पर कर्म-पुद्गल का प्रभाव ही आश्रव हैं जो बंधन का कारण हैं। यहां भी राग-द्वेष एवं कषायों से मुक्त होना ही है। यही वीतरागत्व है।
संक्षेप में जैन-चिंतन का सार सर्वस्व राग-द्वष से ऊपर उठना है, यही उसकी साम्य दृष्टि है। यही उसका वीतरागत्व है।
हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह आदि दोषों से बिना बचे सदगुणों में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती और सद्गुण-पोषक प्रवृत्तियों को बिना जीवन में स्थान दिये हिंसा आदि से बचे रहना असम्भव है। हिंसा को दूर करना हो तो प्रेम और आत्मौपम्य के सद्गुण को जीवन में स्थान देते जाएं । अहिंसा की जीवन-साधना आत्मौपम्य भावना विकसित किये बिना और अहिंसा का समाज-धर्म अपरिग्रह की साधना के बिना असम्भव है। अतः "अहिंसा परमोधर्मः" के पूर्व "अपरिग्रह परमोधर्म' की साधना आवश्यक है । अहिंसक जीवन शैली में वैभव के वीभत्स प्रदर्शन और विलास का बाहुल्य एक असंगति है। इसलिये तो आचार्य श्री तुलसी का जीवन मंत्र है---"संयमःखलु जीवनम् ।' जिस प्रकार शरीर के बिना प्राण की स्थिति असम्भव है, वैसे ही धर्म-शरीर के बिना धर्म-प्राण की स्थिति भी कष्टमय है । जैन-संस्कृति का धर्म-शरीर भी संघ-रचना, वाड़मय, तीर्थ, मन्दिर, शिल्प स्थापत्य, उपासनाविधि, आदि अनेकों रूप में विद्यमान है। इन सब में अहिंसा की प्रतिध्वनि होनी चाहिये।
इसलिये जैन विश्वभारती को मान्य विश्वविद्यालय बनने की घोषणा के उत्साह में जब यहां पांच सितारे होटलों की तरह अतिथि-भवन, प्रशासकीय या पाठ-भवन निर्माण करने एवं तदनुरूप उसकी साज-सज्जा जुटाने को सोचा जाता है तो लगता है कि हमने जैन-संस्कृति के प्रतीक जैन विश्वभारती की आत्मा का दर्शन नहीं किया है। जैन विश्वभारती का अपना दर्शन है और उसके अनुरूप ही इसकी स्थापना सुदूर राजस्थान जैसे मरु-प्रदेश में की गयी है जो जिला या अनुमंडल का भी मुख्यालय नहीं है । आचार्य श्री तुलसी चाहते तो दिल्ली, बम्बई, मद्रास, कलकत्ता आदि किसी महानगर में इसकी स्थापना कर सकते थे। शायद वहां कई तरह की सुविधाएं भी होतीं। लेकिन उन्होंने इसके लिये एक छोटे से गांव को चुना, जैसे गुरुदेव ने शान्ति-निकेतन, श्री अरविन्द ने पांडिचेरी, महर्षि श्रद्धानन्द ने हरिद्वार के गुरुकुल कांगड़ी को शिक्षा का केन्द्र चुना था। आज के नगर एवं महानगर
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