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________________ जैन विश्व भारती : अहिंसा की प्रतिध्वनि १६९ प्रकार जैन परम्परा में "सामाइय" हैं। इसलिये जब-जब श्रावक धार्मिक जीवन स्वीकार करता है तब-तब वह "करेमि भंते सामाइय" ऐसी प्रतिज्ञा करता है। "सामाइय" करने का अर्थ है, समता या समभाव को स्वीकार करना। यही साम्य-दृष्टि गीता में भी है ---"समत्वं योग उच्यते ।" "सुख-दुःख समेकृत्वा लाभालाभौ जया जयो ।" वस्तुत: यह साम्य-भावना चित्त-शुद्धि, स्थितप्रज्ञता या वीतरागता का ही फल होगा। यह साम्यदृष्टि आचार एवं विचार दोनों में अभिव्यक्त हो सकती है। जैन धर्म का बाह्यआभ्यन्तर, स्थूल-सूक्ष्म सभी आचार साम्य-दृष्टि मूलक अहिंसा के केन्द्र के आस-पास ही निर्मित हुआ है । जिस आचार और विचार के द्वारा अहिंसा की दृष्टि एवं रक्षा न होती हो ऐसे किसी भी आचार को जैन परम्परा मान्य नहीं रखती । अहिंसा जब विचार-क्षेत्र में आती है तो उसे हम अनेकांत दृष्टि कहते हैं और जब वाचिक दृष्टि से विचार करते हैं तो वह स्याद्वाद-दृष्टि कहलाती हैं। तो साम्य के लिये मूल प्रश्न है अहिंसा की प्रतिष्ठा। चाहे वह आत्मविद्या के द्वारा हो या कर्म-विद्या के द्वारा या चारित्र-विद्या या लोकविद्या आत्मविद्या कहती है कि यदि जीवन व्यवहार में साम्य का अनुभव नहीं हो तो आत्म-साम्य कोरा सिद्धान्त मात्र है। जैसे हम अपने दुख का अनुभव करते हैं, वैसा ही पर-दुख का भी अनुभव करना है । यदि दूसरों के दुख का आत्मीय दुख रूप से संवेदन न हो तो अहिंसा सिद्ध भी नहीं होती । उपनिषद् एवं वेदान्त अहिंसा का समर्थन समानता के सिद्धान्त पर नहीं बल्कि अद्वैत के आधार पर करते हैं । उनके अनुसार सभी जीव शुद्ध ब्रह्म ही हैं। जीवों का पारस्परिक भेद वास्तविक न होकर अविद्यामूलक है। अतः अन्य के दुख को अपना दुख समझ लेना चाहिये । उनके अनुसार यह अभिन्नता का भाव ही अहिंसा की जननी है। ___ कर्म-विद्या के अनुसार भी यदि विचार करें तो अज्ञान और रागद्वेष ही कर्म है । अज्ञान के कारण जो-जो विचार पैदा होते हैं, वही तो राग-द्वेष हैं जो हिंसा के प्रेरक हैं। अत: हिंसा का असली जड़ अज्ञान ही है । अपने पराये की वास्तविक प्रतीति न होना अज्ञान या दर्शनमोह हैं । यदि हम यह जान लें कि हर प्राणी में एक ही आत्म-तत्व है तो फिर हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठेगा। दूसरा कोई है ही नहीं, अतः दूसरे का अनिष्ट अपनाना ही अनिष्ट करना है । सभी आत्म-वादी दर्शनों में यह आम सहमति है। चारित्र का कार्य भी जीवनगत वैषम्य के कारणों को दूर करना है। आध्यात्मिक जीवन की उत्क्रांति चारित्र के विकासक्रम पर अवलम्बित है। बहिरात्मा में आत्मज्ञान का उदय नहीं होता है, उससे ऊपर आत्मज्ञान का उदय तो होता है, लेकिन राग-द्वेष कायम रहते हैं। तीसरी भूमिका परमात्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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