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जैन दर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन
क्रम के आवश्यक अंग बनाने का निर्देश दिया है । जैसे कर्म को ज्ञान से विलग कर दिया गया है, उसी प्रकार शिक्षण को भी समाज से अलग कर दिया गया है । जैन विश्वभारती इसको उजागर करना चाहेगा । इसके लिए हर पाठ्यक्रम के साथ कुछ अवधि तक समाज - सम्पर्क एवं सेवा कार्य को अंग बनाना होगा | लाडनूं को तो अपना प्रेम क्षेत्र बनाकर यदा-कदा स्वच्छ लाडनूं, नशामुक्त-लाडनूं आदि को अभियान में शामिल करना होगा ताकि समाज को अहसास हो सके कि जैन विश्वभारती हमारी है । इसी प्रकार कम से कम भारत के प्रमुख महानगरों में जैन विश्वभारती मित्र- मण्डल (Friends of Jain Vishva - Bharati ) नामक संस्था का निर्माण करना चाहिए जिसके माध्यम से जैन विश्वभारती के उद्देश्यों, कार्यों एवं इसकी समस्याओं से उन्हें परिचित कराना चाहिए। इससे यहां देश के सभी भागों से छात्र-छात्राएं अध्ययन एवं शोध के लिए आने लगेंगे एवं दाताओं को अपनी सहायता की सार्थकता का भी अवबोध होगा । इसी तरह जैन विश्वभारती मित्र - मण्डल की हम विदेशों में भी स्थापना करके वहां के भारतीय और जैन समाज को एक बौद्धिक एवं नैतिक नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं ।
किसी राष्ट्र की महानता का एक मापदंड है कि उसके विद्यापीठ कितने महान् हैं । प्राचीन भारत में तक्षशिला, नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय थे । दुर्भाग्य से जैन धर्म अपनी अन्तर्मुखी साधना के चारित्र के कारण इस दिशा में विश्वविद्यालय जैसे संस्थान की प्रतिष्ठा कर नहीं सका यों आधुनिक समय में स्याद्वाद विद्यालय, पार्श्वनाथ विद्याश्रम आदि छिटपुट कई सुन्दर प्रयत्न हैं । यह श्रेय आचार्य तुलसी को है कि इन्होंने जैन विश्वभारती का स्वप्न साकार कर एक बड़े अभाव की पूर्ति की । समस्त जैन समाज तो इसके लिए कृतार्थ होगा ही, भारतीय विद्याप्रेमियों के लिए यह एक देवी एवं दिव्य उपहार होगा । भारतीय संस्कृति में मुख्य तीन धाराएं हैं --- लोकायत, वैदिक एवं श्रमण । वैदिक धारा के वाङ्मय की साधना प्रत्यक्ष है, विस्तार के कारण बौद्ध-विद्या की साधना के भी भारत एवं विश्व में अनेक केन्द्र हैं लेकिन जैन विद्या मूलतः अपने ही साधकों के पुरुषार्थ से सम्पन्न होता रहा है । इसलिए शुद्ध सारस्वत - साधना एवं भारतीयता की समग्र भावना को दृढ़ करने के लिए भी जैन विश्वभारती अपेक्षित है । इसे हमें न साम्प्रदायिकता से जोड़ना चाहिए, न कर्मकांड से, यह तो
स्वस्थ जीवन दर्शन की साधना का एक सात्विक केन्द्र होगा ।
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