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________________ जैन विश्वभारती की वर्णमाला १६५ और आलोचनाओं के प्रति असीम सहिष्णुता का स्थान देना होगा। सादा जीवन और उच्च विचार के लिए कम से कम, सादी पोशाक, परिसर में व्यसन-मुक्ति और आहार-शुद्धि की मर्यादा तो होनी ही चाहिए। इसी प्रकार वर्ग-व्यवस्था में आसन-पद्धति एवं अल्पाधिक स्वावलम्बन को अंजाम देने से वातावरण में भारतीयता का मूल्य दीखेगा। भवन एवं उपस्कर केवल छात्र-अध्यापक एवं अधिकारी ही नहीं अपितु जैन विश्व भारती के भवन-वास्तुकला एवं उपस्कर के प्रावधान में भी भारतीयता परिलक्षित होनी चाहिए । भवन एवं उपस्कर में तड़क-भड़क नहीं होकर उसमें सादगी एवं कलात्मकता होनी चाहिए। प्राकृतिक वायु एवं प्रकाश निर्बाध रूप से मिल सके । भवन कबूतर खाने की तरह न होकर उन्मुक्त हों ताकि कृत्रिम वायु एवं प्रकाश की कम से कम आवश्यकता हो। भवन के आस-पास पर्याप्त हरीतिमा एवं फल-फूल के उद्यान होने चाहिए । इस स्थिति में गुरुदेव के समय के विश्वभारती (शांति निकेतन) को आदर्श रूप में सामने रखना चाहिए। पाठ्यक्रम : अध्यापन, प्रशिक्षण, प्रयोग एवं शोध पाठ्यक्रम की समग्र विधाओं जैसे अध्यापन, प्रशिक्षण, प्रयोग एवं शोध में अनेकांत, अपरिग्रह एवं अहिंसा की त्रयो पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। चाहे वह साहित्य हो या समाज-विज्ञान या जीवन-विज्ञान, हर विषय में इस त्रयी की व्यापकता और गहनता को उजागर करना चाहिए ताकि इस क्षेत्र में हम नया अध्याय जोड़ सकें। फिर जैन विश्वभारती को सम्पूर्ण देश को अपना परिसर मानना चाहिए। इसके लिए यहां पत्राचार व्यवस्था और उन्मुक्त विश्वविद्यालय के रूप का भी विकास करना होगा। कलकत्ता, बंबई, दिल्ली आदि महानगरों में इसकी परीक्षाएं आयोजित कर इसको जनमानस में व्यापक बनाना होगा। अहिंसा के प्रशिक्षण-शिविर अधिक से अधिक लगाने होंगे एवं उत्तीर्ण विद्यार्थियों को प्रमाण-पत्र भी देना चाहिए। यही नहीं पश्चिमी एवं व्यय साध्य शारीरिक खेलों की जगह आसन, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, प्रेक्षाध्यान, कायोत्सर्ग आदि को अधिक प्राधान्य दिया जाना चाहिए। समाज-सम्पर्क एवं समाज-सेवा- (Extension) आज के विश्वविद्यालय प्राय: समाज और सामाजिक समस्याओं से कटे हुए रहते हैं। यही कारण है कि वे समाज को सांस्कृतिक और नैतिक नेतृत्व प्रदान करने में अक्षम रहते हैं। विश्वविद्यालय आयोग ने अध्यापन, शोध, प्रशिक्षण के साथ-साथ समाज-सम्पर्क एवं समाज-सेवा को भी पाठ्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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