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जनतंत्र और अहिंसा
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प्रजातांत्रिक प्रशासन का कोई दूसरा विकल्प नहीं दीखता । अतः इसके प्रतिकार एवं प्रतिरोध का प्रश्न ही व्यर्थ है। लेकिन सर्वप्रथम तो प्रचलित जनतंत्र ही दोषमय है, जहां 'जन' के नाम पर 'पक्ष', एवं पक्ष के नाम पर पक्ष के कुछ तानाशाह प्रपंच एवं पैसे की माया रच कर गद्दी पर बैठे रह सकते हैं। फिर बहुसंख्यकों का क्रूर बहुमत वस्तुतः अल्पसंख्यकों को उपेक्षित, अनादृत एवं अधिकारविहीन कर देता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि लोकतंत्र का अधिष्ठान भी लोकशक्ति में नहीं, वरन् दंडशक्ति की प्रतीक पुलिस एवं सैन्यशक्ति में है। इसलिए जिस लोकशाही में लश्कर का स्थान हो, वहां अहिंसक प्रतिरोध या सत्याग्रह का स्थान नहीं होगा--यह बात समझ में नहीं आ सकती। जब जनतंत्र की पोशाक में तानाशाही का नग्न नृत्य हो, वहां जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपेक्षित एवं अनिवार्य समाज-परिवर्तन के लिए यदि हम अहिंसक विकल्प का अन्वेषण नहीं करेंगे, तो या तो हम हिंसा-प्रतिहिंसा की आग में भस्म हो जाएंगे या फिर समाज-परिवर्तन के द्वार ही सदा के लिए बन्द हो जाएंगे। फिर तो लोकतन्त्र भी नहीं रहेगा। फिर आज जब राज्यशक्ति का दिनानुदिन विस्तार हो रहा है, जब राज्य की काली या उजली छाया परिवार, प्रार्थना, पाठशाला एवं रंगशाला पर भी पड़ रही है, और फिर सत्ता-प्राप्ति की होड़ में पैसे की थैली एवं गुटबाजों की कलाबाजियां कामयाब हो रही हैं तथा उस पर भी नौकरशाही एवं लाल फीताशाही मजबूत होती जा रही हैं, तो जनतंत्र का केवल निर्जीव ढांचा खड़ा करने से जनतंत्र नहीं बचेगा। इसलिए जनतंत्र परिवार एवं प्राणरक्षण के लिए भी सत्याग्रह की संजीवनी चाहिए। जब लोकशाही जनता का दामन पकड़ कर सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करती है, किन्तु दूसरी ओर मत्ता में बने रहने के लिए पुलिस एवं फौज की गोलियों पर ही विश्वास रखती है, जब सामाजिक-आर्थिक न्याय-प्राप्ति के लिए कोई भी वैधानिक उपाय के लिए अवसर ही नहीं रहते हैं; जब आम चुनावों से जनमत के फैसले के कारण राष्ट्रीय समझ-बूझ कुण्ठित-सी हो जाती है, तो उस समय अन्याय के प्रति आत्मसमर्पण या खूनी प्रवृत्ति-इन दोनों के बीच एक मात्र विकल्प सत्याग्रह का रहता है । इस प्रकार का अहिंसक प्रतिकार, इस प्रकार की सविनय अवज्ञा, इस प्रकार के अन्याय के लिए दूसरों को कष्ट दिए बिना स्वयं कष्ट-सहन प्रत्येक नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको कुचलना वस्तुत: अन्तरात्मा की आवाज को कुचलना है। इसलिए सत्याग्रह वास्तव में सर्जनात्मक एवं साहसिक नागरिकता का प्रशिक्षण तथा अन्याय के प्रतिकार का रक्षा-कवच है। सत्याग्रह-युद्ध में प्रतियुद्ध या परस्पर संघर्ष का स्थान नहीं; क्योंकि यह सत्ता-प्राप्ति के लिए नहीं, सत्ता को शुद्ध करने और उसका सदुपयोग कराने के लिए होता है। उसी प्रकार सत्याग्रह से अराजकता को
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