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________________ १५२ जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन भी के एक अनिवार्य अंग समता का भी मेल हिंसा से नहीं बैठता । हिंसाशक्ति किसी विशेष व्यक्ति या दल या गुट के अधीन रहती है, जिसमें स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया कुण्ठित हो जाती है। सच्चे लोकतंत्र में तो सबों को समान रूप से ही बढ़ने का अवसर मिलता है। फिर जिस प्रकार उसका स्वतंत्रता, समता से बैर है, उसी प्रकार भ्रातृत्व से उसका विरोध है । अहिंसा प्रेम ar अधिष्ठान है । यही परस्पर विश्वास एवं स्वेच्छया सहकार है । लेकिन, हिंसक पद्धति में भ्रातृत्व के स्थान पर दासता, विश्वास की जगह अविश्वास एवं अनुशासन की जगह दबाव है । हिंसा से प्रतिफलित आतंकवाद में बन्धुता और भ्रातृत्व स्वाहा हो जाता है । अतः हम कह सकते हैं कि जितनी हिंसा होगी, उतनी ही कमी स्वतंत्रता, समता एवं भ्रातृत्व में होगी --- जो जनतंत्र के मूल में है । ६. जनतंत्र और हिंसा इस युग की शायद यह सबसे बड़ी पहेली है कि जिस जनतंत्र की बुनियाद ही अहिंसा हो, उसे स्वयं अपनी आत्मरक्षा के लिए भीषण दण्डविधान एवं घनघोर विनाशकारी युद्ध के आयुधों का निर्माण करना पड़ता है । चाहे वह विदेशी आक्रमण हो या आंतरिक सुरक्षा या प्रशासन के अन्य कार्यकलाप, सभी दंडशक्ति एवं हिंसाशक्ति पर आश्रित दीखते हैं । शायद यह सोचा जाता हो कि चूंकि अभी तक पूर्ण प्रजातंत्र प्रकट नहीं हुआ है, अतः हिंसा का सर्वथा निर्मूलन भी संभव नहीं, इसलिए आंतरिक सुरक्षा के लिए पुलिस एवं दंड - विधान तथा संभाव्य वैदेशिक आक्रमण के लिए सुसज्जित सैन्यशक्ति का विधान करना पड़ता है । इस दृष्टि से जनतंत्र निरंकुश तानाशाही एवं निर्द्वन्द्व अराजकता के बीच की चीज है । यह ठीक है कि जिस प्रशासन में जितना ही कम शासन होगा, वह उतना ही अधिक अच्छा होगा । लेकिन, इसका अर्थ अराजकता नहीं । अराजकता कभी भी जनतंत्र का विकल्प नहीं मानी जा सकती, लेकिन यह तो मानना ही होगा कि जो जनतंत्र जितना ही अधिक सही होगा, उसमें उसी के अनुपात से उतना ही अधिक अनुशासन एवं उतना ही कम शासन या दबाव होगा । जब जनशक्ति दुर्बल हो जाती है, सज्जनता उदासीन हो जाती है, तो फिर दुर्जनों के प्रतिकार की सारी जिम्मेवारी राज्यशक्ति पर ही आ जाती है और उस समय उसका सामना हिंसा से करने के अतिरिक्त और कुछ सूझ नहीं पड़ता। लेकिन जब जन, सज्जन एवं महाजन सभी अपनी शक्ति को संगठित कर लें, तो फिर अहिंसा से भी मुकाबला करना आसान हो जाता है । लेकिन, इस मुकाबला करने में एक बात अधिक महत्त्व की है - दुर्जन से अधिक दुर्जनता की जड़ और उसके कारणों के ही निर्मूलन का अवसर रहता है । मुख्य प्रश्न है कि सैनिक शक्ति एवं नागरिक शक्ति के संघर्ष से नागरिक शक्ति की जय होनी चाहिए। इसके बिना लोकतंत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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