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________________ जनतंत्र और अहिंसा १५१ अहिंसा या हिंसा है। जनतंत्र का इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जनतन्त्र के विकास-क्रम में हिंसा के द्वारा समाज-नियंत्रण क्रमशः क्षीण पड़ते गये हैं एवं उनके स्थान पर अहिंसक पद्धतियों का आविष्कार हुआ है। इसीलिये तो जब एक सच्चा जनतंत्रवादी अपनी समता और अपनी अधिकार-प्राप्ति के लिए भी यही कहता है कि वह अपने अधिकार की प्राप्ति के लिए भी हिंसा का सहारा नहीं लेगा, तो फिर जनतंत्र एवं अहिंसा के बीच की दूरी ही प्रायः समाप्त हो जाती है। फिर विचार-परिवर्तन की सुसंस्कृत एवं शांतिपूर्ण जनतांत्रिक प्रक्रिया पारस्परिक भय, अविश्वास एवं हिंसा के वातावरण में सम्भव नहीं है। पारस्परिक विचार-विनिमय जो जनतंत्र के मूल में है, पारस्परिक सद्भाव एवं शांति के वातावरण में ही सम्भव है। अतः जनतांत्रिक प्रक्रिया के सामान्य संचालन के लिए भी अहिंसा एक अनिवार्यता है। साथ-साथ अहिंसा का यह मार्ग है कि अपने विरोधियों का मत-परिवर्तन प्रेमपूर्वक और प्रजातांत्रिक पद्धति से ही करे। इसलिए प्रजातंत्र को हम अहिंसा का पर्याय नहीं भी स्वीकार करें, तो भी यह तो माना ही जाएगा कि जनतांत्रिक पद्धति में विचार-विनिमय, विचार-प्रचार और विमुक्त-निर्वाचन, जनतंत्र को हिंसा से अधिक दूर एवं अहिंसा के अत्यधिक समीप उपस्थित करता है। सच्चे अर्थों में अहिंसक बनने के लिए जनतांत्रिक बनना न्यूनतम शर्त है और सच्चे रूप में जनतांत्रिक दृष्टि के लिए अहिंसक दृष्टि आवश्यक है। हिंसा से जनतंत्र का मेल बैठ नहीं सकता; क्योंकि हिंसा जहां दण्डशक्ति में विश्वास करती है, वहां जनतंत्र विचारशक्ति में आस्था रखता है। हिंसा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का शत्रु है, जनतंत्र की सारी बुनियाद उसी पर है। हिंसा वोट में नहीं, चोट में विश्वास करती है । जनतंत्र के लिए वोट या जनमत ही सार-सर्वस्व है । हिंसा, नियम एवं कानून का निषेध है, जनतंत्र का आचार ही नियम का राज्य (Rule of Law) है । असल बात तो यह है कि हिंसा में जनमत की उपेक्षा है, लेकिन जनतंत्र में तो सामान्य जन-इच्छा की ही संप्रभुता है । हां, यह कहा जा सकता है कि अजनतांत्रिक प्रशासनों से भी जनता का सहकार मिलता है, लेकिन वह तो केवल दंडभय से ही होता है। इसलिए वह अस्थायी होता है । जीवननिष्ठ जनतंत्र में जनता स्वेच्छापूर्वक एवं ज्ञानपूर्वक सहकार करती है; क्योंकि उसमें भय नहीं, बल्कि सामाजिक दायित्व की भावना रहती है । हिंसक उपायों के प्रयोग की यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है कि उसमें विरोध या विरोधियों को दबाकर उनका नाश करके खतम कर दिया जाए। इस स्थिति में वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा की बात ही निराधार है। फिर जिस प्रकार हिंसा के साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मेल नहीं बैठता, उसी प्रकार लोकतंत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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