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________________ १५० जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन चेष्टा करता है। उसी प्रकार अहिंसात्मक दृष्टि भी स्वतः सिद्ध निष्पक्ष न्यायाधीश की भांति सदा-सर्वदा सत्य के समस्त पक्षों का समन्वय करती हई अनेकात्मक होती है। इसलिये जनतांत्रिक एवं अहिंसात्मक जीवनदर्शन संघर्ष के स्थान पर समन्वय एवं विरोध के स्थान पर सहकार को अपना जीवन-मूल्य स्वीकार करता है। समन्वय जीवन की साधना है, समाज की रीढ़ है और विश्व-रचना का सुदृढ़ आधार है। समन्वय का विचार आज के युग की मांग है। जनतन्त्र एवं अहिंसा का समस्त विकास वस्तुतः समन्वय की पद्धति से ही हुआ है । यही उसकी मुख्य शक्ति भी है। ५. जनतंत्र एवं अहिंसा : सम्बन्ध-निरूपण चाहे हम सब अपने को एक ईश्वर की संतान माने या एक मानवपरिवार के सदस्य मानें, हम समान हैं। अतः हमारा समान अधिकार एवं समान कर्तव्य भी है। यहां एक दूसरे के प्रति हिंसक व्यवहार, शोषण एवं उत्पीड़न उस पवित्र नियम का खंडन है। उसी के खंडन से समाज में असंतुलन, संघर्ष एवं अस्तव्यस्तता आती है। यही अहिंसा की भावना है और जनतन्त्र उसी अहिंसा-भावना का व्यवहार-धर्म (applied religion) है, जो प्रशासन के क्षेत्र में अभिव्यक्त होता है। उसी प्रकार जनतंत्र की आधार, समता और स्वतंत्रता, अहिंसा की भावना को गंभीरतम अभिव्यक्ति है । अतः जनतन्त्र एवं अहिंसा एक दूसरे के पूरक एवं रक्त-सम्बन्धों से आबद्ध हैं। जहां जनता के द्वारा जनता का जनता के लिए प्रशासन की बड़ी जोर-जबर्दस्ती की कल्पना ही व्यर्थ है । जितनी ज्यादा जोर-जबर्दस्ती या हिंसा होगी, उतना ही कम जनतंत्र होगा। लेकिन, यह कहा जा सकता है कि आज की जनतांत्रिक सरकारों में भी हिंसा फूटती और भभकती रहती है। ऐसा क्यों ? उसका अर्थ इतना ही है कि जनतांत्रिक सरकारें वास्तविक रूप में जनतंत्र की भावना पर खड़ी हैं ही नहीं यानी इनका आधार जनता का स्वयं-स्फूर्त संयत सहकार नहीं, बल्कि प्रकट एवं अप्रकट हिंसा है । जो प्रशासन आर्थिक-सामाजिक विषमता पर और शोषण पर अवलम्बित हो, उसे हिंसा का सहारा लेना ही होगा ! विषमता हिंसा है और शोषण भी हिंसा है। सामाजिक और आर्थिक अन्याय एवं बहुस्पर्धावाद की राजनैतिक भूलों पर अव्यवस्थित तथाकथित शांतिपूर्ण जनतंत्र हिंसा का प्रतिमान रूप ही है। आज का जनतान्त्रिक राज्य भी हिंसा का ही एक संगठित रूप है। व्यक्ति में तो आत्मा होती है, लेकिन राज्य तो आत्मविहीन जड़-यंत्र मात्र है। प्रचलित प्रजातंत्र सर्वायतन का दिखावा करने वाली राज्य-पद्धति वस्तुतः हिंसा पर ही आश्रित है; क्योंकि इनमें केन्द्रीकरण, यन्त्र-पूजा, शस्त्रनिष्ठा और शोषण का समावेश है। इसलिए जनतंत्र उसी हदतक पूर्ण या अपूर्ण है, जिस हद तक उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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