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जनतंत्र और अहिंसा
१- मूल्य-निरूपण
प्रचलित अर्थों में जनतंत्र भले ही एक प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था के रूप में माना जाता हो, लेकिन व्यापक अर्थ में वह समाज का एक स्वरूपविशेष एवं सर्वोपरि जीवन की एक विशेष पद्धति है। प्रश्न केवल व्यवस्था का नहीं मूल्य का है। इसी प्रकार अहिंसा केवल निरामिष आहार या प्राणिवधवर्जन ही नहीं, वह तो अन्तस्तल का अगाध एवं अनन्त प्रेम है, जहां स्पर्धा के स्थान पर सहयोग और प्रतिद्वन्द्विता के बदले प्रेम को जीवन-मूल्य के रूप में स्वीकृति है।
हम यह कह सकते हैं कि लोकतंत्र और अहिंसा के ये मानवीय मूल्य किसे मान्य नहीं ? किन्तु प्रश्न केवल मान्यता का नहीं मानने का है। भावना का नहीं, आचरण का है । बाह्य से अधिक अंतर का, कर्म से अधिक महत्त्व आत्मा का मानना ही होगा। इसके बिना हमारे बड़े-से-बड़े कर्म इतिहास के द्वारा भुला दिए जायेंगे। अतः इन मूल्यों को मन एवं भावना में दृढ़ रखकर इनके अनुबंध एवं संदर्भ को, स्थिति और परिस्थिति को, हम जब तक आध्यात्मिकता के संस्कार-परिष्कार से मूल्य-परिवर्तन का नवविधान प्रदान नहीं कर दें, हम न सच्चे जनतंत्र को और न सच्ची अहिंसा को ला सकेंगे। जो जनतंत्र जन-मन से अलग निर्जीव जनगणना के अंकगणित से काम चलाता है, वह स्वयं अपनी रक्षा के लिए ही बार-बार दंडशक्ति यानी पुलिस एवं फौज के सामने असहाय हो कर अश्रुपात करता रहता है । इसलिये सच्चे जनतंत्र के लिए केवल संख्याबल नहीं, धर्मबल और आत्मबल चाहिये । महत्त्व मत का नहीं, विश्वास का है; गणना का नहीं, श्रद्धा एवं आस्था का है । शक्ति जिससे काम होगा, वह स्पर्द्धा एवं संघर्ष से दहकती और भभकती हुई नहीं होगी, उसे तो अन्तस्तल की सहिष्णुता, स्नेह एवं सेवा की स्निग्धता एवं हृदय की मधुरता चाहिए । उसी प्रकार अहिंसा भी कोई रूप या कृत्य नहीं, वह तो एक भावना है, मूल्य की संज्ञा है। मनुष्य में पशुता की प्रत्येक पराजय को, युद्ध की नृशंसता के बीच प्रत्येक नियमन
और नियंत्रण को, राष्ट्रों के बीच अवश्यंभावी युद्ध की भावना के स्थान पर एक अवश्यंभावी विश्व-व्यवस्था को एवं आणविक शक्तिसम्पन्न दारुण हिंसक उपकरणों के प्रलयंकारी प्रदर्शन के मध्य शांति की प्यास और तड़प को अहिंसा कहते हैं। हिंसा की उद्याम धारा के बीच मानव-चेतना में अहिंसा
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