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________________ जनतंत्र और अध्यात्म १४७ को अन्तःसलिला सरस्वती स्वरूप हिंसा को आत्मघातक एवं अहिंसा को अनिवार्य बता रही है। लगता है इतिहास के गर्भ-से हिंसा नही, अहिंसा निकल रही है और संहार के बीच भी जीवन अपना निर्माण निकाल रहा २. जनतंत्र और अहिंसा : मानव-सापेक्ष प्रश्न चाहे जनतंत्र का हो या अहिंसा का, ये सब मानव-सापेक्ष हैं। यानी ये सब प्रश्न मानव के प्रश्न हैं और मानव के लिए ही हैं । मानव ही परम मूल्य है । मानव-प्रतिष्ठा और मानवीय निष्ठा को भुला कर जनतंत्र श्रीहीन एवं अहिंसा शक्तिहीन दीख रही है । यहां प्रश्न यह है कि भौतिकवादी चिंतनधारा ने विज्ञान की प्रतिष्ठा के बल पर मानव-सापेक्ष इन गंभीर प्रश्नों को मानव-निरपेक्ष कर दिया है। फल यह हुआ कि हमने इन प्रश्नों के मूल में निहित मानव-निष्ठा एवं मानवीय प्रयोजन को ही भुला दिया है। मानव-सम्मान एवं मानव-कल्याण को भूल कर हम लोकशाही एवं तानाशाही, हिंसा या अहिंसा का विवाद ही क्या कर सकेंगे? इसलिये जब तक जनतांत्रिक राज्य-पद्धति और अहिंसात्मक जीवन-पद्धति का अनुबंध मानवीय मंगल एवं मानवीय प्रतिष्ठा के साथ नहीं बैठेगा, ये सारे विचार-विमर्श कृत्रिम होंगे। राज्य-व्यवस्था या संविधान का ढांचा चाहे कितना भी सुन्दर क्यों न हो, प्रत्यक्ष व्यवहार में वह व्यक्ति की सज्जनता एवं असज्जनता पर ही आधारित है। उसी प्रकार अहिंसा की सफलता या विफलता की कुंजी व्यक्ति की शुद्धता एवं अशुद्धता के पास ही है। राज्य-व्यवस्था या समाजव्यवस्था के शास्त्र-शुद्ध गणितशास्त्र तो क्या, व्यावहारिक गणितशास्त्र के समान भी नहीं हैं। शुद्ध गणितशास्त्र विचार-सृष्टि में और व्यावहारिक गणितशास्त्र जड़ भौतिक सृष्टि में विचरण करता है, किन्तु, राज्य एवं समाजशास्त्र का विस्तार एवं व्यापार मानव की चेतन सृष्टि में है, जहां उसकी भावना एवं योजना, स्थिति एवं परिस्थिति, नीति एवं मूल्य, आदर्श एवं आकांक्षा-~~-इन सबों का प्रभाव पड़ता है। इसलिए जनतंत्र एवं अहिंसा के सम्बन्ध-निरूपण में मानव और मानवीय संदर्भ को भुलाया नहीं जा सकता है। ३. जनतंत्र और अहिंसा : मानवीय सभ्यता के विकास-क्रम में राज्यतंत्र से जनतंत्र का विकास वस्तुत: मानवीय सभ्यता का ही विकास-क्रम है। कभी निर्बल की हार और प्रबल की जीत ही हमारा नियम था । यदि सृष्टि में एक ही मनुष्य होता, तो शायद हार और जीत का प्रश्न ही निरर्थक हो जाता। किंतु, यहां तो मानव-विस्फोट की समस्या है। अतः हमारे सामने प्रश्न है "सृष्टिका कितना और कैसे उपयोग हो ?" यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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