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विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय
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गन्तव्य है-~-भगवत्ता की प्राप्ति । एक ही अन्तर है कि विज्ञान बिना जाने उस दिशा में बढ़ता है जबकि अध्यात्म चेतनयुक्त होकर उसी दिशा में बढ़ रहा है।" दोनों के मूल में मानव के प्रति अनंत करुणा है। इसीलिए लेनिन ने चेतावनी दी थी कि "वैज्ञानिक गणित की गगनचुम्बी उड़ान में उस तराज को भूल जाते हैं जिस पर से वे उड़े थे।" श्री अरविन्द ने भी इसी को दूसरे शब्दों में कहा- "आध्यात्मिक विकास की चोटियों पर यदि हम मानवधरातल को भूल जायं तो हम कभी भी सत्य को नहीं पकड़ सकेंगे। (लाइफ डिवाइन, भाग-१, पृ० ४५) । सांख्य या देकार्त ने जड़ और चेतन का द्वत खड़ा कर अव्यक्त पृथक्करण पैदा किया था, जबकि माध्यमिक शून्यवाद आदि ने रक्त और मांस, पदार्थ और वस्तु को छोड़कर सत्य की झांकी पाने का भले प्रयास किया लेकिन वह भी अव्यक्त पृथक्करण का ही प्रयास सिद्ध हुआ। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद दोनों अपने आप में पृथक्करण के उदाहरण हैं। इसीलिये श्री अरविन्द ने Denial of the Materialist और Refusal of the Ascetic के बीच मध्यम-मार्ग चुना। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय इस प्रकार के किसी कृत्रिम द्वैत को स्वीकार नहीं कर सकता है । जीवन की सम्पूर्णता के लिए आवश्यक सारे मूल्य न केवल विज्ञान से प्राप्त हो सकते हैं, न कि केवल विज्ञानेतर शास्त्रों यानी साहित्य एवं कला से । कोमलता, दया, करुणा, आत्मीयता और प्रेम जैसे मूल्य विज्ञान से नहीं, अध्यात्म से निःसृत होंगे। लेकिन जिस प्रकार शक्ति के बिना शिव-स्वरूप हैं, उसी प्रकार विज्ञान के बिना अध्यात्म भी पंगु होगा। अत: आज सस्कृतिसंगम की आवश्यकता है जहां विज्ञान और अध्यात्म की समन्वय-साधना ही मानव-साधना का पर्याय होगी।
शुद्ध अध्यात्म राग-द्वेष से विमुक्ति है और शुद्ध विज्ञान में राग-द्वेष का स्थान ही नहीं हो सकता। अतः अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही सत्य का संधान हैं । सत्य न तो प्राची के हाथ बिका है, न प्रतीची के हाथ । सत्य पर न तो सुकरात का स्वाधिकार है न शंकर का, न न्यूटन का एकाधिकार है न आइन्स्टीन का । वैज्ञानिक निष्ठा रागद्वेष-विमुक्ति की ही साधना है। रागद्वेष विमुक्ति वैराग्य के लिए जितनी आवश्यक है, उससे अधिक स्वस्थ जीवन के लिए भी। अक्षोभवृत्ति धारण किए हम तनावपूर्ण जीवन से त्राण नहीं पा सकते हैं तथा अध्यात्म मानवजीवन की एक वैज्ञानिक आवश्यकता है और विज्ञान अध्यात्म को शक्ति देता है।
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