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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
कल्पना नहीं परंतु सत्यसिद्ध तत्त्वज्ञान है। जीवित अनेकांत पुस्तकों में नहीं, जीवन में मिलेगा जब हम दूसरे विषयों को सब ओर से तटस्थ रूप से देखने, विचारने और अपनाने के लिए प्रेरित होंगे। विचारों की जितनी तटस्थता, स्पष्टता, निस्पृहता अधिक होगी, अनेकांत का बल उतना ही अधिक होगा। हमें यह सोचना चाहिए कि समन्वय जीवन की एक अनिवार्य विवशता है । लेकिन बिना समझ-बूझे या दूसरों की देखा-देखी से लाया जाने वाला अनेकांत न तो तेजस्वी होगा, न उसमें प्राण ही होगा। अतः हमें मानस अहिंसा के रूप में भनेकांत को स्वीकार कर समन्वय की साधना को तेजस्वी बनाना चाहिए।
विश्व का विचार करने वाली दो परस्पर भिन्न दृष्टियां हैं-एक है सामान्यगामिनी दृष्टि, दूसरी है विशेषगामिनी दृष्टि । सामान्यगामिनी दृष्टि शुरू में तो सारे विश्व में समानता देखती है और धीरे-धीरे अभेद की ओर झुकते-झुकते एकता की भूमिका पर आती है, जबकि विशेषगामिनी दृष्टि केवल विभेद ही विभेद देखती है । भेदवाद-अभेदवाद, सद्वाद-असद्वाद, निर्वचनीयवाद-अनिर्वचनीयवाद, हेतुवाद-अहेतुवाद आदि का समन्वय अनेकांत-दृष्टि से संभव है। प्रत्येक युक्तिवाद अमुक-अमुक दृष्टि से अमुक -अमुक सीमा तक अपने को सत्य मानता है। इस प्रकार से सभी युक्तिवाद वास्तविक हैं, हां अपनी-अपनी अपेक्षा से । यद्यपि वैदिक दर्शन के न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, वेदांत और बौद्ध-दर्शन में किसी एक वस्तु के विविध दृष्टियों से निरूपण की पद्धति तथा अनेक पक्षों के समन्वय की दृष्टि है, किंतु उनमें प्रत्येक पहलू पर संभावित समग्र दृष्टि बिंदुओं से एक मात्र समन्वय में ही विचार की परिपूर्णता मानने का दृढ़ आग्रह जैन-परंपरा की अपनी विशेषता है। इसलिए स्याद्वाद को विश्वविजेता निष्कंटक राजा कहा गया है। "एवं विजयिनि निष्कंटके स्याद्वादमहानरेन्दे ।" ऋग्वेद का वचन "एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" (१११६४।४६) वस्तुतः समन्वयकारी अनेकांत का बीज वाक्य है। जो भी हो, हमें मानना होगा कि जैन-दर्शन ने प्रमेय का स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य यानी विलक्षणा परिणामवाद को मानकर तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में एक विशिष्ट समन्वयवाद उपस्थित किया है। यही नहीं आचार-प्रधान जैन धर्म ने तत्त्व ज्ञान का उपयोग भी आचार-शुद्धि के लिए ही किया है। इसी लिए तर्क जैसे शुष्क शास्त्र का उपयोग भी जैनाचार्यों ने समन्वय के लिए किया है । दार्शनिक संघर्ष एवं वाद-विवाद के युग में भी समता, उदारता मौर समन्वय-दृष्टि की जैन ताकिक परंपरा में अद्भुत अभिव्यक्ति मिलती है। हेमचंद्र ने कहा है
भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो वा जिनोवा नमस्तस्मै ॥
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