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समन्वय की साधना में जैन-संस्कृति का योगदान
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हरिभद्र तो और भी अधिक प्रगल्भ दीखते हैं
पक्षपातो न मे वीरो न द्वषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यपरिग्रहः ।।
असत् में जब वस्तु स्थिति की अनन्तधर्मात्मकता, मानवीय ज्ञान की दुखद सीमायें, शब्द का अत्यल्प सामर्थ्य तथा अभिप्राय की विविधता का जब विचार करते हैं तो उसका निरूपण करना कोई सामान्य कार्य नहीं। इसी लिये जैनों ने आचार में अहिंसा, विचार में अनेकांत, वादादि में स्याद्वाद तथा समाज में अपरिग्रह----ये चार स्तंभ माने जिन पर उनका सर्वोदयी भव्य प्रासाद खड़ा है । जैन दर्शन की भारतीय दर्शन को यही देन है कि इसने वस्तु के विराट् स्वरूप को सापेक्ष दृष्टिकोणों से देखना सिखाया, सावधानी पूर्वक सापेक्ष भाव से बोलना सिखाया और हर जीव को जीने का समान अधिकार माना, सबों के साथ अहिंसा का व्यवहार सिखाया तथा समाज में समता के लिए अपरिग्रह बताया।
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