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समन्वय की साधना में जैन-संस्कृति का योगदान
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के अनुसार वायु, अग्नि, आकाश, प्राण को विश्व का मूल कारण माना गया है । (बृहदारण्यक ५५ १, छान्दोग्य, ८३, कठ, २१५१९ छान्दोग्य १/९/१, १।११।५ आदि। इन सबों का अर्थ है कि विश्व के कारण की जिज्ञासा से अनेक मतवादों का प्रादुर्भाव हुआ जिसका स्पष्ट संकेत वेद-उपनिषद् में मिलता है । मतों के इस जंजाल को भी समन्वय करने का प्रयास किया गया है मानो जैसे सभी नदियां समुद्र में विलीन हो जाती हैंउदधादिव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः ।
न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥
- सिद्धसेनद्वात्रिंशिका, ४।१५
बुद्ध के विभज्यवाद और मध्यम प्रतिपदा के सिद्धांत पर भी हम अनेकांत दृष्टि का स्पर्श पाते हैं जब अति के मध्य में रहने का आदेश मिलता है । शाश्वतवाद और उच्छेदवाद, आदि द्वन्द्वों के बीच समन्वय किया गया है । भगवान् बुद्ध द्वारा लोक संज्ञा, लोक आसक्ति, लोक व्यवहार एक लोक-प्रज्ञप्ति का आश्रय लेने का स्पष्ट संकेत है । बुद्ध ने कहा है – हे माणवक ! मैं यहां विभज्यवादी हूं, एकांशवादी नहीं ।" ( मज्झिमनिकाय - सुत्त ९९ ) । भगवान् बुद्ध का विभज्यवाद कुछ मर्यादित क्षेत्र में था किंतु महावीर का क्षेत्र व्यापक था । इसी कारण विभज्यवादी होते हुए भी बौद्ध दर्शन अनेकांत की ओर काफी अग्रसर हुआ है । महावीर ने विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक बनाया है। एवं विरोधी धर्मों के अनेक अंतों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षाभेद से घटाया है । इसी कारण विभज्यवाद का अर्थ अनेकांतवाद या स्याद्वाद हुआ । विरोधी धर्मों को स्वीकार करना विभज्यवाद का मूलाधार है। जब कि तिर्यग् और ऊर्ध्वता दोनों प्रकार के सामान्यों के पर्यायों में विरोधी धर्मों का स्वीकार करना अनेकांतवाद का मूलाधार है । अत: इस दृष्टि से अनेकांतवाद विभज्यवाद का ही विकसित रूप है । बुद्ध की समन्वय - भावना सिंह सेनापति के संवाद से स्पष्ट होती है जब उन्होंने अपने को "अक्रियावादी और क्रियावादी" दोनों बताया । ( विनय पिटक, महावग्ग - ६।३१)
व्यवहार में अनेकांत का उपयोग नहीं होने का परिणाम है हिंसा का विस्तार | अनेकांत और उसकी आधारभूत अहिंसा का ही परिणाम है कि जैन अन्य कई धर्मों की तरह कभी भी विस्तारवादी नहीं बना । ज्ञान, विचार, आचरण और वाणी के किसी भी एक विषय को केवल संकीर्ण दृष्टि की अपेक्षा अनेक दृष्टियों से और अधिक से अधिक मार्मिक रीति से विचारने और आचरण करने का जैन-संस्कृति ने आग्रह रक्खा है । वस्तुतः अनेकांत जैन - संस्कृति की जीवन-पद्धति है जो सभी दिशाओं से खुला एक उसके आगे-पीछे, भीतर-बाहर सर्वत्र ही सत्य का प्रभाव है ।
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मानस - चक्षु है । अतः यह कोई
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