________________
१३८
जैन दर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन
कठिन है । हम अपनी दृष्टि से यथार्थ का वर्णन कर सकते हैं लेकिन वह अपूर्ण ही होगा । अतः सत्यदर्शियों में भी भेद तो होंगे ही क्योंकि वे सब अपूर्ण हैं । इसलिए राग-द्वेष से मुक्त होकर तेजस्वी मध्यस्थ भाव रखकर निरंतर जिज्ञासा करते जाना एवं विरोधी पक्षों पर आदर पूर्वक विचार करना तथा अपने पक्ष की भी तीव्र समालोचक दृष्टि रखना और अंत में अपनी प्रज्ञा से विरोधों का समन्वय करना एवं जहां अपनी भूल हो वहां मिथ्याभिमान परित्याग कर आगे बढ़ना चाहिए ।
अनेकांत से दो सिद्धांत फलित हुए - नयवाद और सप्तभंगी । विचार की विभिन्न पद्धतियों को समन्वय करने का काम नयवाद करता है और किसी वस्तु के विषय में प्रचलित विरोधी कथनों का समन्वय सप्तभंगी का काम है । लेकिन दुर्भाग्य है कि उदारता की पराकाष्ठा पर पहुंचकर सत्य को प्रकाशित करने वाले इस अनेकांत दर्शन को भी जैनेतर विद्वानों ने साम्प्रदायिक स्वरूप में ग्रहण कर उसे खंडन करने का प्रयास किया है । बादरायण ने तो “नैकस्मिन् असंभवात्" (२१२/३३) सूत्र की रचना कर डाली, जिस पर शंकर, रामानुज से लेकर डा० राधाकृष्णन एवं पं० बलदेव उपाध्याय तक वेदांत के आचार्यों ने दिग्भ्रमित भाष्य कर डाले । फिर तो वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर गुप्त, अर्चट, शांतिरक्षित आदि प्रभावशाली बौद्धों ने भी अनेकांतवाद पर निर्मम प्रहार किया है। फिर तो जैन विचारकों को आत्मरक्षा के लिए उनका सामना करना ही था । इसी तरह एक प्रचंड विचार-संघर्ष का जन्म हुआ और अनेकांत दृष्टि का तर्कबद्ध विकास हुआ । लेकिन खंडन-मंडन के बावजूद भी अनेकांत दृष्टि का भारतीय संस्कृति पर व्यापक प्रभाव पड़ा । जैन - विरोधी प्रखर आचार्य रामानुज ने मायावाद के विरोध में भले ही उपनिषद् का सहारा लिया लेकिन विशिष्टाद्वैत के निरूपण में अनेकांत - दृष्टि का उपयोग किया । ब्रह्म चित् भी है, अचित् भी ऐसा सोच वस्तुतः अनेकांत दृष्टि का ही परिचायक है | पुष्टिमार्ग के पुरस्कर्ता वल्लभ ने शुद्धाद्वैत में और निम्बार्क ने द्वैताद्वैत में द्वैत और अद्वैत दोनों का समन्वय किया—यह भी समन्वयकारिणी अनेकान्त दृष्टि ही है ।
यों तो वेद-उपनिषद् की भी विवेचना की जाय तो उनके वचनों को समझाने के लिए अनेकांत - दृष्टि का ही सहारा मिलेगा । नासदीय सूक्त में जगत के कारण को "न सत्, न असत्" कहा गया है । शायद शब्द में इतनी शक्ति नहीं कि उस परमतत्त्व को प्रकाशित कर सके । कहीं पर असत् से सत् की सृष्टि बनने की बात है " - सदेव सोम्येदमग्र आसीत - छान्दोग्य ६ / २ ईशावास्य में तो इस परम तत्त्व वर्णन में 'तदेजति तन्नैजति, तदूरे तद्वन्ति के " अदि कहकर और भी स्पष्ट किया गया है । पिप्पलादऋषि के अनुसार प्रजापति से सृष्टि हुई ( प्रश्नोपनिषद् १।३।१३), किसी के अनुसार जल, किसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org