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समन्वय की साधना में जैन-संस्कृति का योगदान
का प्रश्न व्यर्थ है । जैन परम्परा की तरह ही उसे न्याय-वैशेषिक-सांख्य-योगवेदान्त-बौद्ध सबों ने मान लिया है। ब्रह्म के साथ माया, आत्मा के साथ अविद्या का सम्बन्ध अनादि है । सर्वथा कर्ममुक्ति से ही आत्मा का पूर्ण शुद्ध रूप प्रकट होता है। सर्वथा कर्म छूट जाने से आत्मा का भास्वर एवं शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है एवं राग-द्वेष जड़ से मुक्त हो जाता है । इस तरह चारित्र्य का कार्य वैषम्य के कारणों को दूर करना है जो संवर, निर्जरा आदि हैं । आध्यात्मिक जीवन का विकास अन्तर चारित्र के विकास-क्रम पर निर्भर है । जैन परम्परा में चौदह गुणस्थान में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा तीन काय हैं । अंतिम भूमिका में रागद्वेष का उच्छेद हो जाता है और अहिंसा तथा वीतरागत्व प्रकट होता है ।
(घ) लोक-मीमांसा :-जैन परम्परा में चेतन और अचेतन के परस्पर प्रभाव का ही यह संसार है। जैन परंपरा न्याय-वैशेषिक की तरह परमाणुवादी है किंतु इसका परमाणु न्याय-वैशेषिक की तरह कूटस्थ नहीं बल्कि सांख्य की तरह परिणामी है। एक ही प्रकार के परमाणु से सब तरह की चीजें बनती हैं और वह इतना सूक्ष्म है कि सांख्य की प्रकृति की तरह अव्यक्त हो जाता है। जैन परंपरा का अनंत परमाणुवाद प्राचीन सांख्य सम्मत पुरुष बहुत्त्व रूप प्रकृति बहुत्त्ववाद से बहुत दूर नहीं है। जैन परंपरा सांख्य-योग-मीमांसा की तरह लोक-प्रवाह को अनादि अनंत मानती है। यानी कर्ता, संहर्ता रूप से ईश्वर जैसी सत्ता को नहीं माना गया है। प्रत्येक जीव अपनी-अपनी सृष्टि का आप ही कर्ता और अपना ही मुक्तिदाता है । इस तरह तात्त्विक दृष्टि से प्रत्येक जीव में ईश्वर भाव है । २. विचार में साम्य : अनेकान्त :
जैन परंपरा विचारों की सत्यलक्षी संग्रह होने के कारण किसी भी विचार सरणी की उपेक्षा नहीं करना चाहती है। यही कारण है विचार विकास के लिए संग्रहनय रूप से ब्रह्माद्वैत विचार ने भी स्थान प्राप्त किया है। इसी तरह ऋजुसूत्रनय रूप से बौद्ध क्षणिकवाद तथा वैभाषिक, सौत्रान्तिक, विज्ञानवाद और शून्यवाद-इन चारों प्रसिद्ध बौद्ध शाखाओं का संग्रह हुआ।
संक्षेप में अनेकांत-दृष्टि इतनी सर्व-संग्राहक है कि इसमें समन्वय की अपूर्व क्षमता है। यही उसका हृदय है । जैन परंपरा में सत्य प्रकाशन की शैली का ही नाम अनेकांत है। अनेकांत के मूल में दो तत्त्व हैं—पूर्णता और यथार्थता । जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता है। एक तो वस्तु स्वरूप इतना संश्लिष्ट है कि उसका भी कालबाधित ज्ञान संभव नहीं और यदि हो भी जाय तो उसका कथन करना
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