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________________ निरामिष आहार और पर्यावरण यह दुर्भाग्य है कि "निरामिष आहार' को हम किसी "धार्मिक निष्ठा" या "भूतदया" आदि की भावना से जोड़कर ही देखते हैं। वस्तुतः निरामिष-आहार मात्र आहार का प्रश्न नहीं, यह एक जीवनशैली का प्रतीक है । इसमें सौन्दर्य बोध भी है, एवं अध्यात्म का आधार भी। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अधिक उपयुक्त है तो इसके बलवती आर्थिक आधार भी हैं । लेकिन इसकी सर्वाधिक निकटता का सम्बन्ध पर्यावरण एवं पर्यावरण शास्त्र से है । आज पर्यावरण की समस्या मानव-अस्तित्व के लिये सबसे बड़ी चुनौती है यदि तुलनात्मक दृष्टि से कहा जाय तो परमाणु बम से मानवता को जितना खतरा है, उसकी अपेक्षा पर्यावरण विनाश से सैकड़ों गुना अधिक संकट है । इसलिये पर्यावरण के प्रति चिन्ता काफी बढ़ी है। यह चिन्ता दिनों-दिन थोड़ी बहुत मानवीय भी होती जा रही है। पर्यावरण का सम्बन्ध हमारी संस्कृति, परम्परा, साहित्य एवं कला, अर्थनीति, समाज से ही नहीं बल्कि हमारे पूरे अस्तित्व से है। भोपालकाण्ड तो प्रदूषण नियंत्रण के अनुत्तरदायित्व की पराकाष्ठा है। किन्तु पर्यावरण विनाश के अनेक सूक्ष्म एवं अदृश्य प्रक्रियाओं में हमारी पूरी उपेक्षा करती हुई हमारी प्राकृतिक संपदा लुटती जा रही हैं । हर साल भारत में १० लाख हेक्टेयर जंगल नष्ट हो रहे हैं, जीवनदायिनी नदियों के उद्गम स्थल पर्वत मालाओं को नष्टभ्रष्ट किया जा रहा है, नदियों के जल बड़े-बड़े बांधों में कैद किये जा रहे हैं । आर्थिक उन्नति एवं वैज्ञानिक प्रबन्ध के नाम पर वन, चारागाह, नदी, तालाब आदि का संगठित रूप से दुरूपयोग किया जा रहा है। जब तक समाज अपनी प्राकृतिक संपदा के साथ अपने सम्बन्ध फिर से परिभाषित नहीं करेगा और उससे जुड़े लोग प्रकृति की सार-संभाल फिर से अपने हाथों में नहीं लेंगे, तब तक उसकी रक्षा असंभव है । लेकिन पर्यावरण-संरक्षण के लिये एक विशेष सामाजिक-संस्कृति एवं एक विशिष्ट जीवन-पद्धति आवश्यक है। मूल प्रश्न है कि मनुष्य का प्रकृति से कैसा सम्बन्ध होगा ? क्या हम उसके साथ मंत्री का सम्बन्ध रखेंगे या उसके साथ संघर्ष कर उसका शोषण करते रहेंगे ? सन्त व. बेकर (कनाडा) ने जो "वृक्ष-पूजक" कहे जाते थे, कहा कि मैं वृक्ष की इसलिये पूजा करता हूं कि उसमें मुझे जीव का दर्शन होता है। आज दुनिया में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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