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________________ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन गति से अपना उपक्रम कर रहा है, दूसरी ओर अज्ञान और संशय के रूप में कुछ प्रतिगामी वृत्तियां भी दृष्टिगोचर हो रही हैं। अनुभववाद जहां इन्द्रिय की सीमा का उल्लंघन नितान्त निषिद्ध मानता है वहां बुद्धिवाद मानवीय मस्तिष्क की लक्ष्मण रेखा में ही आबद्ध है-जो नितान्त अविहित तो है ही, साथ-साथ इसमें उच्चतर ज्ञान के गवाक्षों की भी उपेक्षा है। इसीलिए यदि एक संशयवाद और अज्ञेयवाद को जन्म देता है तो दूसरे से ज्ञान में जड़त। एवं अप्रगतिशीलता का दोष उत्पन्न होता है । भारतीय संशयवादी संजय को इसलिए “कायर बुद्धिवादी" की हीन संज्ञा से विभूषित किया गया है क्योंकि मानवीय चित्त की निर्णयभूमि पर सार्वत्रिक अनिश्चयता के कारण बौद्धिक जड़ता एवं निर्णय-हीनता को प्रश्रय मिलता है।' अज्ञानवाद हमारे ज्ञान के लिये पूर्वनिश्चित सीमाओं का निर्धारण ही नहीं करता बल्कि ज्ञान के विषय में मनोविज्ञान की भ्रान्त धारणा के कारण ज्ञान की समस्त संभावनाओं को ही तिलांजलि दे देता है। ३. ज्ञान की सीमायें : समस्यायें और समाधान ज्ञान की सीमा की समस्या भयानक रूप से विवादास्पद हैं। विज्ञान के चमत्कार से प्रभावित व्यक्तियों की सीमाओं के निर्धारण की चेष्टा ही एक परम्परागत भ्रामक धर्मसापेक्षी दार्शनिक विचारधारा का परिणाम दीखता है, और आज के वैज्ञानिक युग में जबकि किसी भी तत्त्व को न स्थिर ही माना जा सकता है न तत्त्वज्ञान को पूर्णतया निश्चित एवं सत्य, तत्त्व ज्ञान की सीमाओं का निश्चित निर्धारण ही असंभव लगता है।"" 'सर्वज्ञ' शब्द का प्रयोग मात्र परम्परागत एवं अंधविश्वास-पूर्ण कहा जाता है। मार्क्सवादी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित विचारक एक ओर यदि 'असीम' या 'अंतिम-ज्ञान' की कल्पना को मिथ्यात्व बताता है तो दूसरी ओर अज्ञान के अंधकार को नष्ट करने के लिये सतत यत्नशील रहने की आशावादी प्रेरणा प्रदान करता है । ज्ञान मानव की प्रवृत्ति एवं समाज के सम्बन्धों के ऐतिहासिक विकास का सतत उन्मुख सिद्धान्त है। प्रकृति का कोई रहस्य ऐसा नहीं अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति; वेदान्त-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि : आदि पुराणों में प्रमाण माने गये हैं। १. Barua, B.M. A History of Pre-Buddhistic Indian Philo. sophy, Cal. Univ. 1921, pp. 330-1. २. Ladd, L.T : Knowledge, Life and Reality, Yale Uni. 1918, pp. 100-1. ३. डा० अजित कुमार सिन्हा कृत निबन्ध "ज्ञान की सीमायें"-दार्शनिक त्रैमासिक, अक्तूबर, १९६३, पृ० २३४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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