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________________ ज्ञान की सीमायें और सर्वज्ञता की संभावनायें १. ज्ञान विस्तार : एक मानवीय आकांक्षा यह ठीक है कि आधुनिक विचारक सर्वज्ञता की मान्यता या संभावनाओं पर विचार करना तो दूर रहा इसे अंधविश्वास पर आधारित अत्यन्त अप्रौढ़ चिंतन से उद्भूत उपहास एवं परिहास का विषय मानते हैं, दूसरी ओर इसके समर्थक उन्हीं निर्जीव युक्तियों का नि:सार पुनरावर्तन कर रहे हैं जिनका परम्परागत बुद्धिवाद के इतिहास में चाहे जो भी मूल्य रहा हो आज के वैज्ञानिक जगत् में कोई विशेष महत्त्व नहीं रहा है, फिर भी यदि सर्वज्ञता का विचार मानवीय आकांक्षाओं पर आधारित है तो यह एक समस्या के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है ही। संभवत: मानवीय ज्ञान का विकास मानवीय सभ्यता के विकास का भी मापदंड रहा है क्योंकि "हमारे ज्ञानान्तर्गत सत्य का मूल्य न केवल सत्य के हमारे सैद्धांतिक परिज्ञान के लिये महत्त्वपूर्ण है बल्कि इसका सम्बन्ध विभिन्न क्षेत्रों में हमारे व्यक्तिगत जीवन एवं आचरण से भी रहा है। इसीलिये मानव सृष्टि के आरम्भ से ही अपने ज्ञान की सीमा के विस्तार के लिये प्रयत्नशील रहा है। इसीलिये तो ज्ञान केवल ज्ञान के लिये ही नहीं बल्कि जीवन और जोवन-संघर्ष के आवश्यक उपकरण के रूप में भी रहा है । भारतीय प्रमाण-शास्त्र के इतिहास में प्रमाण-संख्या को क्रमिक अभिवृद्धि भी ज्ञान-विस्तार की इसी मानवीय चेष्टा की ओर एक गभित संकेत है। इसी प्रकार ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में उत्तरोत्तर विस्तृत अभिक्रम मानवीय अन्तराल की ज्ञान-विस्तार की असीम बुभुक्षा एवं पिपासा प्रमाणित करता है। संक्षेप में, हम यह निवेदन कर सकते हैं कि ज्ञान के विस्तार का यह निरन्तर प्रयास एक शाश्वत मानवीय आकांक्षा या एक आधारभूत प्रवृत्ति के रूप में रहा है। २. व्यवधान और विकार जहां एक ओर मानव अपने ज्ञान विकास के लिये इस प्रकार अबाध १. Gustava Weigel and Arthur G. Madden : ' Knowledge : Its Values and Limits." Englewood Cliffs., 1991, Preface. २. चार्वाक-प्रत्यक्ष; वैशेषिक-प्रत्यक्ष तथा अनुमान; सांख्य-बौद्ध-प्रत्यक्ष, अनुमान शब्द; न्याय-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान शब्द; मीमांसा-प्रत्यक्ष, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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