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________________ निरामिष आहार का दर्शन हम मांसाहार के द्वारा अपनी अन्तनिहित अनन्त सहानुभूति एवं करूणा आदि की आध्यात्मिक शक्तियों को क्षीण करते हैं और व्यर्थ ही क्रूरता का प्रशिक्षण लेते हैं । किसी प्राणी को कष्ट नहीं देना, यह मानब की स्वाभाविक वृत्ति है किन्तु मांसाहार इस वृत्ति को कुंठित करती है । मेरी वेब (गोल्डन एरोज) ने ठीक ही कहा है कि सौंदर्य तो सम्पूर्ण प्रकृति में है, केवल मांस के बाजारों में नहीं । डा. एच. के लोग ने कहा है कि यह अजीब बात है कि कोई मृत पशु से हम घृणा करते हैं किन्तु बूचड़ की दूकान में मरा हुआ पशु अपने भोजन के लिये शौक से खरीदते हैं। प्राचीन भारतीय ऋषियों के अतिरिक्त यूनान के संत दार्शनिक सुकरात ने यह बताया था कि गणतंत्र का आदर्श किस तरह अन्याय एवं हिंसा से ग्रसित हो जायेगा यदि हम अनावश्यक जीवन-साधना में लगें। मांसाहार भी अनावश्यक ही है। अपलातू (४२७३४७ ईसा पूर्व) संत बसील (३२०-३७९ ई० पूर्व), संत जेरोम (३४०-४२० ईसाब्द), संत अगस्तीन (३५४-४३०), चेरो स्थोम (३४६-४०६) और कवियों साहित्यकारों में सैम्युल टेलर कोलरिज, लौंगपेलो, मिल्टन, कूपर, शेक्सपियर, शेली, वर्डस्वर्थ, रोमां रोला, जार्ज बर्नार्डशा, मैंटर लिंक आदि ने जो करूणा मूलक गीत गाये हैं, वे सौंदर्य बोध की दृष्टि से मांसाहार का वर्जन करते हैं। यूनानी दार्शनिक (पिथागोरस) ५७०-४७० ई० पू०) ने १९-२० वर्ष की अवस्था में ही मांसाहार त्याग दिया जिसके फलस्वरूप कम सोने पर भी उनका शरीर स्वस्थ, बुद्धि प्रांजल एवं आत्मा में सात्त्विकता एवं शांति रही। ५. आर्थिक आधार फुड एन्ड न्यूट्रीशन बोर्ड की राष्ट्रीय शोध परिषद् ने यह सिद्ध किया है कि मांसाहार वाले व्यक्तियों को निरामिष व्यक्तियों की तुलना में छः गुनी अधिक जमीन चाहिये। मांसाहार के लिये पशुओं को चारा उगाने के लिये आज कम से कम ३००,०००,००० एकड़ अच्छी जमीन पर कोई पैदावार नहीं होती। मांस के निर्यात की तात्कालिक अर्थ लोलुपता के पीछे दूरवर्ती विपन्नता भी झांकती रहती है। आज भी अन्न उपजाकर ही हम भारत वर्ष में अपना खाद्य संकट दूर कर पाये हैं न कि मांसाहार से । अनेक शोधों से यह प्रमाणित हो चुका है कि कृषि, फल-फूल आदि के संवर्द्धन से ही हम देश की खाद्य समस्या का हल कर सकते हैं । इस संदर्भ में मेजर जनरल मैक्करीशन, डॉ. आयक रोड, डा. वी. एन. पटवर्धन, डा. एच. ए. पी. आदि के प्रामाणिक शोध हमारे मार्गदर्शक हैं। अतः यह तो हमारी सामाजिक आर्थिक अनिवार्यता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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