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________________ ११८ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन विचारों को बदलना चाहते हैं तो हमें उसके शरीर को परिष्कृत करना होगा। मांसाहार मनुष्य के लिये अनिवार्य नहीं है, यही इसके नैतिक आधार के लिये पर्याप्त है । मनुष्य परम्परा एवं आदत के कारण अभी मांसाहार करता है जिसका अब विकल्प है । यह संभव है कि हजारों हजारों वर्ष पूर्व कृषि आदि का आविष्कार नहीं हुआ होगा तोमनुष्य भले ही आखेट पर रहता हो लेकिन अब तो मांसाहार उसकी अनिवार्यता नहीं बल्कि उसकी विलासिता है । आज तो पृथ्वी के किसी कोने में जहां खेती बाड़ी का अभाव हो, वहां भी यातायात के द्रुत साधनों से पर्याप्त अन्न भेजा जा सकता है। अन्न का उत्पादन भी मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकता है। यदि अनिवार्यता रहती तो नैतिकता का प्रश्न नहीं आता किन्तु जहां स्वतंत्रेच्छा है तो हमारे ऊपर निर्भर है कि हम क्रूर बनें या करूणावान बनें । हिंसा एवं प्राणियों के प्रताड़ना के बीच अनुस्यूत सम्बन्ध है और इससे युद्ध का भी संबंध है । विनवुडरीड ने अपनी पुस्तक “मानव जाति का भविष्य'' में लिखा है कि मांसाहारियों के विषय में आनेवाली पीढ़ी उसी प्रकार से हेय दृष्टि से देखेगी जिस प्रकार हम मनुष्य भक्षी युग को देखते हैं । डीन इंग ने तो कहा ही है कि उन्नीसवीं सदी का यह सबसे बड़ा आविष्कार है कि मनुष्य एवं पशु एक ही परिवार के हैं अतः पशुओं के प्रति भी हमारा नैतिक दायित्व है । ४. मांसाहार और सौन्दर्य बोध __ मांसाहार और सौन्दर्य बोध मानो आत्म-विरोधात्मक शब्द है। सौंदर्य जीवन और जीवनदान में है, प्राण-हत्या में नहीं। जीवन प्रकृति है, जीवन का नाश विकृति मानना चाहिये । इसलिये तो सौंदर्य बोध की दृष्टि से मांसाहार कुरूपता है, विकृति है। उदाहरण के तौर पर किसी कलात्मक सौष्टव से सजे भवन में प्रवेश करें जहां फूल-पत्तियां परिहास कर रहे हों, एवं चिड़ियां आदि चहक रही हों, वहीं यदि भोजन की मेज पर पशु-पक्षियों के मांस एवं हड्डियां, थालियों में दीख पड़ें तो वहां का सारा सौंदर्य ही क्षतविक्षत हो जाता है । गुरूदेव ने उसी समय मांसाहार त्याग करने का संकल्प ले लिया था जब वध करने के लिये घोर अनिच्छा से ले जाया जाने वाला पशु-बधिकों के पंजे से भाग निकला किन्तु फिर उसे पकड़ लाया गया। "स्तनच्युत भीत पशु क्रंदन" से ही महाकवि की आत्मा झंकृत हो गयी। नियति का कैसा व्यंग है कि जब कोई पशु या पक्षी मर जाता है तो हमारा स्वाभाविक चिंतन यही होता है कि उसे जल्दी अपने पास से हटाकर दफना दें किन्तु मारे गये पशुओं के मांस पकाकर हम कई दिनों तक फ्रीज में रखकर खाते रहते हैं । शायद यह कुरूपता की पराकाष्ठा है। टालस्टाय ने अपने संस्मरणात्मक निबंधों में अपने निरामिष होने के सम्बन्ध में लिखा है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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