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________________ ११४ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन लेकिन जैसे-जैसे मानव-सभ्यता का विकास होता जायेगा, इसका महत्त्व और भी अधिक प्रकट होता जायेगा । असल में निरामिष आहार का विकास मानव के विकास और उसकी पूर्णता तथा मानव के धार्मिक और आध्यात्मिक एकता की दिशा में बढ़ते हुए चरण हैं । राघवेन्द्र स्वामी मठ के श्री सुजयेन्द्र तीर्थ ने कहा है कि सात्विक होने के लिये सात्त्विक भोजन अपेक्षित है और उसके लिये निरामिष आहार आवश्यक है। मानव व्यक्तित्व से यदि हमें पाशविकता का निर्मूलन करना है तो हमें अपने आहार के लिये दूसरे प्राणी के जीवन लेने का मोह छोड़ना होगा। निरामिष आहार केवल आहार की ही एक शैली नहीं यह जीवन की भी शैली है जिसका आधार है कि हम इस पृथ्वी पर ईश्वर कृत प्राणियों से प्रेम करें एवं उन्हें मनसा, वाचा, कर्मणा किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहंचायें । इसलिये निरामिष आहार केवल शरीर को ही नहीं बल्कि मन और हृदय को विशाल उदार एवं प्रांजल करता है। हम लोग जीने के लिये भोजन करते हैं, भोजन के लिये नहीं जीते हैं। अतः आहार एक साधन है, साध्य नहीं । इसी दृष्टि से हमें वैसे आहार का वरण करना चाहिये जो हमें पोषण देने के साथ-साथ अपने वातावरण से एकात्म कर सके । निरामिष आहार वस्तुतः हमें उस आदिम सभ्यता और संस्कृति की याद दिलाता है जिस समय हम आखेट युग में जीते थे, जिस समय अन्न, बागवानी, फलमूल आदि की खेती का विकास नहीं हुआ था। यद्यपि जीवशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य भी पशु-जगत् का ही एक प्राणी है फिर भी उसमें बुद्धि और हृदयगत सुकोमल संवेदनाओं का इतना विकास हुआ है कि उसका पशु-स्वभाव संयमित और दमित हो जाता है। इसकी यही करुणा उसे अपने आहार के लिये दूसरे प्राणी का प्राण नहीं लेने के लिये प्रेरणा देता है । इसलिये निरामिष आहार केवल भोजन-विज्ञान नहीं बल्कि मानव-विज्ञान और संस्कृति-विज्ञान भी है। ___ मानव में अनन्त क्रूरता के साथ अपरिमित करूणा की संभावनायें हैं। वह विकृत होकर विश्व का सबसे अधिक बर्बर एवं नृशंस प्राणी हो सकता है और सुसंस्कृत होकर करूणा की प्रतिमूर्ति बन सकता है। यही है-प्रकृति, विकृति एवं संस्कृति । आहार तो जीवन के लिये आवश्यक है किन्तु हम चाहे किसी प्रकार का आहार ग्रहण करें, मृत्युंजयी नहीं बन सकते । किन्तु हममें ऐसा भी कुछ तत्त्व है जो शाश्वत, चिरंतन और सनातन है। जिसे आत्म-तत्त्व कहा गया है। यह आत्मतत्त्व हमारे आहार पर आधारित नहीं है । फिर यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम किस प्रकार का आहार ग्रहण करें। यहां हमें संकल्प स्वातंत्र्य और क्रिया स्वातंत्र्य है। इस तरह यहां तत्व-मीमांसा एवं आचार-मीमांसा दोनों का समर्थन लिया जा सकता है । (१) तत्व मीमांसीय आधार :-यदि हम विश्व के समस्त प्राणियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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