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निरामिष आहार का दर्शन
जिस प्रकार शंकराचार्य ने "ब्रह्म” और “माया" तथा ड्रडले ने आभास और सत् (Apperance and Reality) का विचार-भेद तत्त्वमीमांसा के स्तर पर किया है उसी प्रकार हमें अहिंसा, अपरिग्रह या निरामिष आहार आदि सामाजिक आदर्शों की विवेचना करके इनके यथार्थ और पाषंड का विभेद अधिक गंभीरता से समझना चाहिये। अर्थशास्त्र में ग्रेशम के नियमानुसार जिस प्रकार खोटे सिक्के सच्चे सिक्के को बाजार से भगा देने में समर्थ हो जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसा और निरामिष आहार आदि की अवधारणाओं के विषय में उनका बाह्य और स्थूल ही प्रबल हो जाते हैं और उनकी आत्मा और वास्तविकता गौण हो जाती है।
निरामिष आहार के भी दो रूप हैं-स्थूल एवं सूक्ष्म । स्थूल दृष्टि से तो निरामिष आहार का इतना ही अर्थ है कि मांसाहार-त्याग। लेकिन इसका सूक्ष्म अर्थ इतना ही नहीं है कि हम आहार में आमिष-भोजन का त्याग तो करें लेकिन हमारे मन में अमैत्री का भाव हो, हमारे व्यवहार में शोषण प्रतिष्ठित हो और हमारे वचन में दर्प और कटता हो। जिस प्रकार एक ओर चोंटी को चीनी खिलाना या मछलियों को तालाब में दाना देना तथा दूसरी ओर बेहिचक मुनाफाखोरी, जमाखोरी और शोषण करना अहिंसा का परिहास है, उसी प्रकार एक तरफ निरामिष आहार का व्रत लेना और दूसरी तरफ प्रपंच विश्वासघात और विषमता में लगे रहना यह पाषंड है।
निरामिष आहार का दर्शन है-मैत्री भाव । "सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद किलष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वे । माध्यस्थ भाव विपरीत वृत्तो सदा ममात्मा विदधातु देव ॥" स्वामीरंगनाथानन्द ने ठीक ही कहा है कि भारत में हाल के कई शताब्दियों में निरामिष आहार सैद्धान्तिक आस्था और विश्वास से ज्यादा आनुवंशिक एवं पारिवारिक प्रचलन के रूप हैं, इसलिये निरामिष आहार के साथ-साथ अन्य प्राणियों एवं मानवों के प्रति अत्यधिक क्रूरता का व्यवहार भी चलता है। यह आत्म-विरोध है । इसके निराकरण के लिये निरामिष आहार जब तक जीवन का मूल्य नहीं बन जाएगा और जब तक यह नैतिक और आध्यात्मिक जागरण का स्रोत नहीं होगा, बल्कि निरामिष आहार एक कर्मकांड बनकर रह जायेगा। विनोबाजी के अनुसार निरामिष आहार तो भारतीय ब्रह्मविद्या का विश्व को श्रेष्ठ अवदान है । भले ही इसका मूल्य अभी प्रकट नहीं हो
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