________________
निरामिष आहार का दर्शन
११५
की एकता (Unity of life) के विचार को स्वीकार करें तो हमें यह मानना होगा कि हमें जैसे जीने का अधिकार है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार है। अद्वैत वेदान्त की दृष्टि तो काफी ऊंची है जहां "तत्त्वमसि' एवं "अहं ब्रह्मास्मि' के सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म एवं जीव की पूर्ण एकता है। उस दृष्टि से किसी प्राणी का वध वस्तुतः अपना ही वध है। अद्वैत के पश्चात् यदि हम विशिष्टा द्वैत और ईश्वरवाद के धरातल पर आकर सोचें तो, जीव ईश्वर का अंश है, इसलिये वह उतना ही पवित्र है जितना ईश्वर । हर जीव में जब ईश्वर का आवास है तो फिर जीव-वध ईश्वर-द्रोह है । जैनशास्त्र के अनुसार भी यह विश्व ही जीवमय है। जिस प्रकार आस्तिक मानस-"हममें तुममें खड़ग खंभ में व्याप्त राम सबमें" या "ईशावास्य मिदं सर्वम्' का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। जैन तत्त्व मीमांसा के अनुसार भी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रीय आदि ही नहीं सूक्ष्मतम जीव जिसे निगोद कहते हैं उससे सृष्टि अव्याप्त है । तो फिर वनस्पति, फल-मूल आहार करने वाले अपने को अहिंसक कैसे कह सकते हैं ? हमारे श्वास-प्रश्वास में अनेक सूक्ष्म जीव चले जाते हैं, जल में सूक्ष्म जीव पाये जाते हैं और सर जगदीश चन्द्र वसु के अनुसार तो वनस्पति जगत् भी जीव-जगत् ही है। वास्तव में इसे हम अपरिहार्य हिंसा कह सकते हैं । सभ्यता ने हमें मानुष-भक्षी से पशु भक्षी और आज निरामिष भोजी बनाया है । मनुष्य, पशु-पक्षी एवं अन्य प्राणियों के लिये चिंता और आतंक से भरे इस परमाणु युग में हमें अपने अन्तर की प्रवृत्तियों का अवगाहन करनाहोगा क्योंकि हमारा अन्तर ही हमारे बाह्य का निर्माण करता है। मानव के भोग्य-पदार्थों के विकास का अवगाहन भी अन्यन्त रोचक है कि हमने किस प्रकार आखेट युग से निरामिष आहार युग तक की यात्रा की है। यह ठीक है कि निरामिष आहार का जीवन दर्शन एवं प्रारूप नवीनतम है जिसने परम्परागत भोजन के तत्त्वज्ञान को ही चुनौती दे डाली है। और प्राणी के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित कर ही मानव का आध्यात्मिक पुनर्जन्म होता है । सभी आध्यात्मिक विकास के लिये निरामिष जीवन-पद्धति इसलिये भी अपेक्षित है कि अध्यात्म-जगत् में सभी प्राणियों का स्थान है । आध्यात्मिकता व्यक्तिगत और सार्वदेशिक चेतना का गुण है जिसके माध्यम से व्यक्तिगत चेतना सार्वदेशिक चेतना से एकात्म होती है। इससे हम सभी प्राणियों के प्रति स्वतः संवेदनशील हो जाते हैं । किन्तु निरामिष आहार का भी गर्व करना और आमिष भोजियों से अपने को श्रेष्ठ प्रमाणित करने का प्रयास इसके महत्त्व को कम कर देता है। इसीलिये केवल निरामिष आहार ही आध्यात्मिकता के लिये पर्याप्त नहीं है बल्कि निरामिष आहार से प्राप्त समग्र प्राणियों के प्रति प्रेम का जीवन-दर्शन जिसे हम सात्त्विकता कहते हैं, आवश्यक है । सत्त्वगुण निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला, अनामय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org