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अपरिग्रह के बिना अहिंसा असंभव
हिंसा मारीच की तरह बड़ा हो छलिया होता हैं । हम भी स्थूल हिंसा को ही हिंसा मान लेते हैं । इस कारण अहिंसा भी केवल बाह्य-आचरण का निर्जीव कर्मकांड बनता जा रहा है । आज विश्व के स्तर पर अहिंसा की अनूगंज सर्वाधिक है । साधु-संत तो हमेशा से अहिंसा की बातें करते रहे हैं लेकिन अब तो राजपुरुष एवं राजनैतिक भी शांति और अहिंसा का जप करते नहीं थकते । भारत में तो कम किन्तु पाश्चात्य देशों में शांति के ऊपर पत्रपत्रिकाओं एवं पुस्तकों का बाहुल्य है। शांति-गोष्ठी, शांति-कूच, शांति के लिए प्रदर्शनों एवं सम्मेलनों का तो तांता लगा रहता है। भारतीय मानस शांति के इस उपक्रम की आवश्यकता नहीं समझता क्योंकि शांति का रक्त स्वतः उसकी धमनियों में प्रवाहित होता रहा है। इसीलिये वह अहिंसा के नाम पर स्थूल हिंसा और छोटे-छोटे भूत दया के कार्यों पर बल देता है। निरामिष आहार हमारी संस्कृति का अंग है, जैसे सामिष आहार पाश्चात्य देशों की संस्कृति बन गयी है। हम स्थूल हिंसा जैसे मारपीट, खून-खराबा से भी परहेज करते हैं । अहिंसा और जीव-दया के नाम पर चींटी को चोनी खिलाते हैं, प्रकाश में छोटे जीवों की हत्या न हो जाय, उसके लिए सूर्यास्त के पूर्व तक भोजनादि करने को परम्परा को मानते हैं ।
फिर भी हमारे जन-जीवन में हिंसा ने सुरसा का रूप धारण कर लिया है और आतंकवाद की गोद में नशंस क्रूरता और पाशविकता का वीभत्स अभिनय हो रहा है । असल में हम हिसा की जड़ों तक पहुंचने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं । हिंसा शून्य से उदभूत नहीं होती है, वह तो हमारे अन्तर्मन के संत्रास, घुटन और विद्वेष आदि से पैदा होती है। लेकिन हमारा अतमन भी स्वभावतः दुष्ट नहीं माना जा सकता है क्योंकि इसमें निखिल मानव-जाति का अपमान तो है ही, निराशावाद भी प्रस्फुट हो जाता है। मनुष्य को स्वभावतः अच्छा मान लेने से एक जटिल समस्या उत्पन्न होगी कि वह फिर बुरा क्यों हो जाता है ? शायद इसमें व्यवस्था और परिस्थिति का दोष है। इसीलिये तो कहा जाता है कि अच्छाई प्राकृतिक एवं स्वाभाविक है, बुराई की वजह होती है । मुहब्बत यों ही हो जाती है अदावत के लिये वजहें होती हैं । तो हमारी समाज-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था ही हिंसा-प्रमुख हो जाती है, इसलिए हिंसा का परिवार-नियोजन नहीं हो पाता । विषमता
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