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मानव समाज एवं अहिंसा
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फासिस्ट एवं नाजीवाद का प्रादुर्भाव हुआ । संकुचित राष्ट्रवाद से दूसरे राष्ट्र एवं विश्वशांति को खतरा तो रहता ही है, स्वयं उस राष्ट्र के नागरिकों की सुरक्षा, स्वतंत्रता एवं सुख का कोइ भरोसा नहीं । आज अन्तर्राष्ट्रीयता कोई स्वप्न नहीं बल्कि नित्यप्रति विकसित यथार्थ है। राष्ट्रीय संप्रभुता की कठोर जंजीरें भी ढीली पड़ती जा रही हैं। राज्यवाद की वढ़ती हई दुःशंकाओं से आक्रान्ता आज की विचारणा अखंड प्रभुसत्ता के सिदांत को चुनौती दे चुकी है। मैकाइवर महोदय ने तो संप्रभुता में सन्निहित राज्य की इस सर्वशक्तिमान सत्ता को अकुशलता का पर्यायवाची बताया हैं तथा लास्की, केल आदि विचारक आर्थिक समुदायों की समान संप्रभुता में विश्वास करने लगे हैं । गेटेल ने संप्रभुता के प्रति इस विरोध को रूढ़िवादी वैधानिकवाद के विरुद्ध सामयिक प्रतिवाद माना हैं। इसलिए तो आज केवल 'अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय" ही नहीं बल्कि “संयुक्त राष्ट्रसंघ" के रूप में विश्व-सरकार की नींव पड़ चुकी है । आज न तो राहुल की "बाईसवीं सदी" एवं न बैन्डल विल्की का "वन वर्ल्ड' ही स्वप्न प्रतीत होता है।
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