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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
अमोघ होता है, इसीलिये बापू ने कहा है कि यह सबसे द्रुतगामी
प्रक्रिया है, क्योंकि इसकी सफलता निस्संशय है । (ट) सबसे अंत में, हम यह कहेंगे कि मानवीय सभ्यता के विकास के इस
सोपान पर हमारे लिये बर्बरता शोभा नहीं देती । अहिंसक युद्ध में मानवीयता और भी प्रखर होती है। हिंसक युद्ध तो वस्तुतः मत्स्य
न्याय है, जिसकी हम इतनी निन्दा करते हैं। (ठ) बाह्य आक्रमणों के संदर्भो में अहिंसा की निष्फलता सिद्ध करने का
प्रयास शायद अहिंसा की कसौटी होगी । इस सम्बन्ध में हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं, चूंकि आज तक कोई भी राष्ट्र अहिंसक होकर किसी आक्रमण का सामना करने के लिए प्रस्तुत नहीं हुआ है : निःशस्त्र एवं अहिंसक राष्ट्र की तो अलग बात है, आज हम देखते हैं कि कुछ हद तक शांतिवादी एवं तटस्थ राष्ट्र के कारण ही चीनी आक्रमण के संदर्भ में भारत को विश्व के राष्ट्रों की सहानुभूति मिली है। इसलिये तो स्वर्गीय डा. राजेन्द्र प्रसाद ने विश्वशांति के लिए एकपक्षीय निःशस्त्रीकरण का सुझाव दिया था। निश्चय ही सचमुच में निःशस्त्र एवं निष्पक्ष
राष्ट्र की रक्षा के लिये आज विश्वमानस बन चुका है। उपसंहार
(क) विश्वशांति : आणविक अस्त्रों के नित्य नवीन शोधन परिशोधन से आज मानवता आक्रान्त भले ही है, लेकिन यह हमें मानना होगा कि आज शस्त्रों का सांस्कृतिक मूल्य तो नष्ट हो ही गया है, युद्ध का गतितत्व भी समाप्त हो चुका है। सांस्कृतिक मूल्य तभी तक था जब यह अपेक्षाकृत आंशिक विनाश के साधन स्वरूप प्रभुत्व प्राप्ति का उपकरण था। किन्तु जब इसमें सर्वनाश की मूर्त सम्भावना प्रकट हो गयी है तो इसका मूल्य ही समाप्त हो गया है। इसलिए निःशस्त्रीकरण एक अनिवार्यता बन गयी है । युद्ध की अनिवार्यता में विश्वास करने वाला साम्यवादी चीन भी आज अणुअस्त्रों के परीक्षण के आंशिक निरोध का इसलिये विरोध करता है कि आंशिक परीक्षण ढकोसला है. वास्तव में सम्पूर्ण परीक्षण बन्द हो । यानि, आज युद्ध समर्थक असभ्य एवं असांस्कृतिक तो माना जायगा ही वह विश्व मानस में अपराधी भी होगा। चाहे यह प्रकृति का व्यंग ही क्यों न हो, चाहे इसे नियतिवाद ही क्यों न कहें, आज निःशस्त्रीकरण एवं विश्वयुद्ध निरोध मानवता के लिये अपरिहार्य बन गया है ।
(ख) विश्व सरकार : राष्ट्रीय संप्रभुता के आंशिक समर्पण की प्रक्रिया उसी समय प्रारम्भ हो गयी जबसे उग्र एवं संकुचित राष्ट्रवाद के गर्भ से
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