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मानव समाज एवं अहिंसा
१०७ ५. अहिंसा की शव परीक्षा : एक विश्लेषण :
यह एक साधारण बात सी हो गयी है कि लोग अहिंसा को एक सुन्दर सिद्धांत, एक सौम्य आदर्श तो स्वीवार कर लेते हैं लेकिन इसे अव्यावहारिक मान लेते हैं। (क) अहिंसा एक ऐसी शक्ति है जिसका उपयोग बच्चे से बूढ़े, बीमार से
स्वस्थ और धनी से गरीब सब कर सकते हैं। अतः यह प्रतिकार का
हिंसा से अधिक प्रभावकर साधन है । (ख) यह सोचना भी गलत है कि अहिंसक प्रतिकार केवल व्यक्तिगत जीवन
के लिये उपयुक्त है, लेकिन सामाजिक जीवन में यह बिलकुल अर्थहीन है । वस्तुत: गांधी एवं विनोबा की सामूहिक अहिंसा एवं सत्याग्रह
के प्रयोग के बाद यह आरोप निराधार माना जायेगा ही। (ग) अहिंसक प्रतिकार ही प्रतिकार का सर्वोतम साधन है, इससे ही हिंसा
का मौलिक एवं आत्यन्तिक निराकरण संभव है। हिंसक प्रतिकार में प्रतिहिंसा एवं प्रतिक्रिया का चक्र अखंड रूप से चलता ही रहता है, जिसमें अन्यायी के नाश से तात्कालिक समाधान तो हो जाता है लेकिन अन्यथा का समूलोच्छेद संभव नहीं होता । अहिंसक सेनानी, ध्यान, जप, योग में मग्न व्यर्थ एवं निष्क्रिय तत्वज्ञानी नहीं होता, वह तो सच्चा पुरुषार्थी बनकर अविरामरूप से अन्याय के विरुद्ध प्राणपन से सक्रिय एवं सजीव रहता है । इस युद्ध में केवल उसका शरीर एवं मस्तिष्क ही नहीं बल्कि उसकी सम्पूर्ण आत्मा भी
युद्धरत रहती है। (च) हिंसक युद्ध में विजय में भी भविष्य में पराजय की आशंका बनी
रहती है, लेकिन अहिंसक युद्ध में पराजय होती ही नहीं और विजय
में एक सौम्यता एवं निश्चितता विराजमान रहती है। (छ) अहिंसा कोइ प्रतिकार नहीं बल्कि क्षमा की पराकाष्ठा है, जिसके
लिये अखंड निर्भयता एवं अपार वीरता चाहिये । अहिंसा कायरों का
युद्ध कौशल नहीं है । कायरता से तो हिंसा ही श्रेयस्कर है। (ज) हिंसा की अपनी सीमाये हैं । हिंसा के द्वारा यदि कोई सुन्दर कार्य भी
होता है, लेकिन हिंसा के द्वारा जो अहित है वह चिरस्थायी रह जाता है । इतिहास इस बात का साक्षी है कि हिंसा का उपयोग
करने वाले स्वयं हिंसा की लपेट में जल जाते हैं। (झ) अहिंसा के विषय में हमारी यह धारणा भ्रान्त है कि यह समय-साधक
प्रक्रिया है । वस्तुत: अहिंसा अपना काम सूक्ष्मता से अदृश होकर करती है, लेकिन तीव्रता कम नहीं रहती । अहिंसा का आक्रमण
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