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अपरिग्रह के बिना अहिंसा असंभव
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के कारण समाज सचमुच समाज नहीं रह पाता । जहां समता होती है, वही "समाज" है-समं अजंति जनाः। समाज का यह आधार तत्व "समत्व" जहां जिस अनुपात में भंग होता है उसका संतुलन बिगड़ जाता है, फिर हिंसा का प्रजनन प्रारम्भ होता है ।
मेरी तुच्छ दृष्टि में हिंसा की जड़ में विषमता तो है ही और विषमता में मूल है-आर्थिक विषमता "अर्थस्य पुरुषो दासो। अर्थ-वैषम्य के कारण सामाजिक वैषम्य बढ़ता है । असल में अर्थ भगवान पर हावी हो जाते हैं । अर्थ आज केवल राजनीति को ही नहीं धर्म को भी नियंत्रित करता है और धर्म के नाम पर आज धर्म-पीठ पूंजीवाद के गढ़ बन रहे हैं । धर्म जो निरभ्र सात्विकता का प्रतीक होना चाहिये, आज वहां भी वैभव का वीभत्स प्रदर्शन, अलंकरण और विलास बढ़ रहे हैं। भगवान रजनीश, महर्षि महेश योगी, पोपपाल या शंकराचार्य आदि धर्मगुरुओं के पीठ किसी भी सामंत या राजदरबार के आडम्बर से कम नहीं । संभव है व्यक्तिगत रूप से वे सरल एवं सादा जीवन ही व्यतीत करते हैं । यही कारण है कि सादगी एवं अपरिग्रह पर धर्म के उपदेशों" को गृहस्थ एवं श्रावकों ने अपने जीवन में भुला दिया और लाखोंकरोड़ों-अरबों की सम्पत्ति के स्वामी बनकर भी उन साधु-संत महात्माओं के निकटस्थ भक्त बने रहे । परिग्रह के पाप मुक्ति के लिये थोड़ा बहुत दान या विसर्जन कर प्रायश्चित्त भी हो गया एवं दानी भी कहला गये । लेकिन समाज की जड़ में अर्थ-विषमता का जहर घुलता ही गया।
भारतीय-मनीषीयों ने इस खतरे को समझ लिया था । इसीलिए साधु-संत और महात्मा स्वरूप समाज के ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान तो दिया लेकिन सत्ता सम्पत्ति दोनों से एकदम दूर रहते का विधान बना दिया । ब्राह्मणो अपरिग्रही" "नीतिवचन" में "परद्रव्येषु लोष्ट्रवत्" एवं संत विनोबा ने “कांचन-मुक्ति" जैसे कठोर व्रत का प्रयोग किया। जहां "श्रम का आवास है, वहीं "आश्रम' है-इसी को आश्रम कहना सार्थक होगा।
इस सत्य को भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक ने आत्मानुभूति की थी और अनागारी के साथ-साथ लज्जा-निवारण की ग्रन्थि से भी मुक्त होकर वस्त्र का भी परित्याग कर दिया । अपरिग्रह की साधना का उनके जीवन में पदार्थ-पाठ मिलता हैं।।
"सूयगडो" के बिलकुल प्रारम्भ में ही वार्तालाप के क्रम में बताया गया है कि "हिंसा का कारण है परिग्रह" । तत्वार्थ सूत्र में परिग्रह को मूर्छा कहा है—'मूर्छा परिग्रहः" मूर्छा एक प्रकार की आसक्ति है । धन की आसक्ति का कारण है कि हम मानते हैं कि धन से सुख मिल सकता है । लेकिन हम जानते हैं कि सुख तो संतोष और संयम से मिलता है । यमराज ने जब नचिकेता को "बहुन्पशु हस्ति हिरण्यं अश्वान्' का प्रलोभन दिया तो
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