________________
मानव समाज एवं अहिंसा
१०५
दृष्टिकोण के प्रति वास्तविक समादार की भावना से तो होंगे ही। “स्याद्वाद" शब्द में स्यात् एक ऐसा प्रहरी है जो शब्द की मर्यादा को संतुलित रखता हैं । "स्याद" का अर्थ 'शायद', 'संभवतः' या 'कदाचित्' नहीं बल्कि 'कथंचित्' या 'अपेक्षित' होगा, यानी अविवक्षित धर्मों का अस्तित्व भी वस्तु में द्योतित होता है। यानी, केवल हमारा मानस और चिंतन ही अनैकांतिक नहीं रहे बल्कि हमारी वाणी भी एकांश प्रतिपादिका न रह कर अनेकांत भाव को प्रकट करते रहें। इस तरह हमने देखा कि अहिंसा केवल व्यवहारगत ही नहीं, मानसिक एवं वाचनिक भी है, जो स्याद्वाद की निर्दोष एवं अहिंसक भाषा शैली से बहुत हद तक संभव भी है।
(ग) अहिंसा की समग्र व्याख्या:-लेकिन अहिंसा का यह कायिक, मानसिक एवं वाचिक रूप से विविध प्रयोग केवल वैयक्तिक जीवन साधना में या जीवन के किसी एक क्षेत्र में ही सीमित नहीं रहेगा। जीवन का सम्पूर्ण क्षेत्र ही अहिंसा की रंगशाला होगी । अहिंसा का अन्वेषण मानवीय सम्यता की शायद सबसे बड़ी उपलब्धि है। प्रेम ही इसका आदि, मध्य एवं अन्त है। यदि हम कुछ गहराई से विचार करें तो यह पता लगेगा कि अहिंसा का अन्वेषण वस्तुतः सत्य का ही अन्वेषण है। सत्य का सम्पूर्ण त्रिकाल बाधित स्वरूप में दर्शन होना तो कठिन है ही, उसका सत्यापन तो और भी कठिन है । इस प्रकार अपूर्ण सत्यदर्शी मानव के चिंतन में देश-काल-परिस्थिति, भाषा, उसकी मनोदशा आदि का प्रभाव पतड़ा है। अस्तु, इस स्थिति में समन्वयात्मक प्रज्ञा एवं मिथ्याभिमान का परित्याग ही अहिंसक जीवन-दर्शन को जन्म देता है । यह जीवन की अनिवार्यता भी है।
___ यदि हम पारिवारिक जीवन से विवेचन आरम्भ करें तो हम यहां सक्रिय प्रेम एवं पारस्परिक त्याग का बिलकुल सजीव उदाहरण मिलेगा । मां की ममता एवं पिता के प्यार में हम वस्तुत: अहिंसा को मूर्त्तमान देखते हैं।
___ सामाजिक-जीवन में अपने व्यक्तिगत निरकुश आवेगों को मर्यादित एवं विवेकपूर्ण नियमन एवं नियंत्रण के द्वारा समाज को संतुलित रखने की उत्तरोत्तर अभ्युदयवान् क्रिया को ही अहिंसा कहते है । जीवित अहिंसा की प्रेरणा निषेध नहीं बल्कि सर्वमंगलकर पारस्परिक त्याग ही है लेकिन समाज के आदर्श संतुलन के लिए सामाजिक-साम्य अनिवार्य है । अत: जाति, सत्ता, सम्पत्ति आदि के आधार पर स्थापित सामाजिक वैषम्य वस्तुतः हिंसा है।
आर्थिक क्षेत्र में व्यक्तिगत स्वामित्व की भावना ही हिंसक भावना है । प्रधो ने भी कहा है : Property is theft. गीता ने बताया हैः त्यक्त सर्व परिग्रहः । इसका अर्थ हुआ कि व्यक्तिगत स्वामित्व का निराकरण करने करना एक अहिंसक विधान है।
उसी प्रकार सामाजिक-जीवन में वर्णभेद या उक्च-नीच का भाव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org