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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन एवं दूसरों को अनिवार्य रूप से गलत मान लेने से बढ़कर हिंसा की कोई दूसरी मजबूत जड़ नही हो सकती। यहीं बाह्य हिंसा का बीज है । इसलिये अपने सिद्धांत में हिमालय की तरह दृढ़ रहने वाले विश्ववंद्य बापू ने बराबर कहा है "मैं स्वभाव से ही समन्वयवादी हूं; क्योंकि केवल मैं ही सच्चा हूं ऐसा मुझे कभी विश्वास नहीं होता।" सचमुच जिस व्यक्ति में अपने अंश-ज्ञान या अल्पज्ञान का भान जगा हुआ होता है वह नम्रता से पद-पद पर कहता हैं है कि "ऐसा होना भी संभव है।" इसीलिये सुकरात ने भी कहा था कि "मैं जानता हूं कि मैं अज्ञानी हूं।" प्लेटों ने भी इस भौतिक पदार्थ को "सत" एवं "असत्" के बीच माना है । पूर्ण ज्ञान तो शायद किसी को होना भी संभव नहीं । सर्वं सर्व न जानाति, सर्वज्ञः नास्ति कश्चन् । इसीलिये हमारा व्यक्तिगत ज्ञान, जिसे हम अंश ज्ञान या opinion कहेंगे, वह संभावना विषयक विश्वास ही कहा जायगा। इसीलिए तो शंकर एवं ब्रैडले को भी मानना पड़ा था कि माया या भ्रान्ति भी सत्य है क्योंकि प्रत्येक भ्रांति में सत्य का यत्किचित अंश तो रहता ही है । (Every sweet hast its sour, every evil good)सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार मानव सामर्थ्य के बाहर है। इसीलिये हमें अपने दृष्टिकोण के साथ अन्य दृष्टिकोण भी हैं, ऐसा जानना और मानना चाहिये । यह तभी हो सकता है जब हम उसकी भावनाओं के साथ सहानुभूति एवं सहृदयता द्वारा अपने मन में उसकी पुनरुत्पत्ति के द्वारा उनको समझे । जीवन एक सीधी सड़क नहीं है। इसीलिए यहां अपने पर आग्रह के बदले विरोधियों को समझने का प्रयास अपेक्षित है । मनुष्य यदि स्वभाव से दुष्ट नहीं है हो मुख्य प्रश्न दृष्टिकोण का है। समझ के अभाव में ही सारे कलह होते हैं । अतः विचार-संघर्ष में अनेकान्त दृष्टि के द्वारा ही स्थायी विराम संभव है। इस तरह हम देखते हैं कि अहिंसा एक विचार-पद्धति है, एक जीवन-दृष्टि है । यह सब दिशाओं से, सब ओर से खुला एक मानसचक्षु है । अनेकान्त कोई कल्पना नहीं बल्कि यथार्थता का जीवित सिद्धान्त है । वह तो किसी भी विषय को केवल संकीर्ण दृष्टि से देखने का निषेध करता है।
मानसिक और बौद्धिक अहिंसा की साधना जब परिपूर्ण हो जायगी तो स्वतः ही वाचनिक अहिंसा आ जायगी । वाचनिक अहिंसा के लिये केवल यही आवश्यक नहीं है कि मिथ्यात्व, कठोरता, व्यंग्य एवं संप्रलाप का ही हम परित्याग करें बल्कि उसकी भाव शैली भी ऐसी होनी चाहिए जिससे कि अंधाग्रह या दुराग्रह की ध्वनि नहीं निकले । जैन विचारकों ने अहिंसक अवधारणात्मक योजना के अन्वेषण-क्रम में स्याद्वाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया है । हम भले ही स्याद्वाद के सभी शास्त्रीय एवं प्राविधिक पहलुओं से सहमत नहीं भी हों लेकिन उसकी अन्तर्गत विचार-सहिष्णुता एवं दूसरों के
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