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________________ मानव समाज एवं अहिंसा १०३ को छोड़कर समाज-संगठन में प्रायः सबों ने प्रेम एवं प्रसंविदा को ही अपनाया अहिंसा : विवेचन और विस्तार : (क) अभावात्मक शब्दावली क्यों ? "अहिंसा' पद देखने में भले ही अभावात्मक है लेकिन यथार्थ में यह भावात्मक पद ही है। यों तो वैशेषिक दर्शन में "अभाव" को भी एक पदार्थ ही माना गया है लेकिन ब्रैडले जैसे प्रत्ययवादी विचारक पूर्ण रूप से अभाव का अस्तित्व नहीं मानते । दूसरा तर्क हम यह भी दे सकते हैं कि “हिंसा" और "अहिंसा" ये दोनों व्याघातक पद हैं, अत: एक के अस्तित्व मात्र से भी इसके विपरीत व्याघातक पद का सहज ही अर्थबोध होता है। तीसरा एक और कारण हो सकता है । “अहिंसा" को धर्म मानकर उपनिषद्, श्रुति, स्मृति तथा बौद्ध एवं जैन वाड्मय में प्रतिष्ठित स्थान मिला है तथा महावीर ने तो "अहिंसा परमोधर्म:' कहकर इसको पूर्ण प्रतिष्ठित कर दिया है । एक कारण यह भी हो सकता है कि चूंकि अहिंसा का भावात्मक अर्थ प्रेम बताया जाता है और प्रेम शब्द चूंकि अनेकार्थक एवं अस्पष्ट होने के साथ-साथ कई गुणों का समावेश करता है जिसमें से केवल एक गुण अहिंसा है, इसलिये "अहिंसा' पद को ही स्वीकार किया गया है । अहिंसा को छोड़कर प्रेम शब्द को इसलिए स्वीकार नहीं किया गया है कि 'प्रेम' शब्द आवश्यकता से अधिक व्यापक है। (ख) अहिंसा की भावात्मक व्याख्या:----अहिंसा की भावात्मक व्याख्या के क्रम में इसे सक्रिय-प्रेम (active love) कहा गया है। जैसे "मा हिस्यात् सर्वभूतानि" जैसे निषेधात्मक श्रुतिवचनों का भावात्मक अर्थ होगा--- ':सर्वभूत हिते रताः' अहिंसा की सर्वांगीण एवं सनातन प्रतिष्ठा के लिये मन, वचन और कर्म-त्रिविध अहिंसा की परिपूर्ण साधना आवश्यक है । इसके इसके लिये एक नवीन-दर्शन, एक नवीन तत्वज्ञान चाहिये । हम बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहेंगे कि अहिंसा का आधारभूत तत्वज्ञान अनेकान्त दर्शन हैं । अनेकान्त दृष्टि का अवलम्बन ही वस्तुत: मानसिक अहिंसा है। वस्तु जगत् की संश्लिष्टता एवं अनन्तता तथा मानव मस्तिष्क की स्वीय स्वल्पज्ञता को ध्यान में रखते हुये अपनी एक क्षुद्र दृष्टि का अहंकार और आग्रह तथा अन्य दृष्टि की अपेक्षा से एक हिंसक मानसिक आग्रहवाद का आविर्भाव होता है । विचार जब किसी अंध आग्रह पर आरूढ़ हो जाता है तो मतवाद बन जाता है । हमारे सभी अंधविश्वास किसी न किसी पक्षपातपूर्ण दृष्टि विशेष की आसक्ति का ही प्रतिफल हैं। इसीलिये व्यावहारिक अहिंसा के लिये सभी प्रकार के दुराग्रहपूर्ण वैचारिक साम्राज्यवाद एवं अतिक्रमण का परित्याग परमावश्यक है। निष्कर्ष यह कि अपने को सदा-सर्वदा सही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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