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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
others “दूसरों को खाकर जीओ' की स्थिति से Live and Let live (जीओ और जीने दो) की अवस्था में आकर उसमें Live for others (दूसरों के लिये जिओ) की भव्य अवस्था में जाने को उद्यत हैं । वस्तुतः समाज व्यक्ति के केवल भौतिक अस्तित्व के लिये ही आवश् यक नहीं है बल्कि समाज का विधान भी मानव-स्वभाव के अनुकूल है। यहां के लोग भी जीने देते हैं । वात्सल्य एवं दाम्पत्य के अतिरिक्त मानव-स्वभाव के अन्तर्गत सामाजिकता की भावना को देखकर ही अरस्तु ने मनुष्य को सामाजिक जीव माना है। कांट ने इसी को(Unsociable Sociableness of man)बताया है । फ्रायड ने इसी (ambivalence) को स्पष्ट करते हुए कहा है-"जिसके साथ हम शान्ति से नहीं जी सकते, किन्तु जिसके बिना हम जी ही नहीं सकते"। किन्तु जिसके बिना हम जी ही नहीं सकते" । मूल प्रवृत्ति के सिद्धान्त स्थापक मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल, ड्रेमर, टेन्सल आदि ने भी समूह-प्रवृत्ति (Instinct of Gregariousness) को माना है । समाज व्यक्तिगत कल्याण के लिये कितना आवश्यक है यह बताने की आवश्यकता नहीं। इसका एक स्थूल प्रमाण यह भी है कि आज समाजवाद का आन्दोलन जागतिक रूप धारण कर दिनोदिन बढ़ ही रहा है। विभिन्न समाज-शास्त्रियों के अनुसार इसी सामाजिकता की भावना को ड्रेमर ने (Worthwhileness) गमप्लोविच ने (Syngenism) कूली ने स्वयं-अनुभव, गीडिगस ने जातीय चेतना तथा लीबान ने सामूहिक मन आदि कहा है। मानवीय सभ्यता के विकास-क्रम में क्रमशः जंगल मानवसमाज, बर्बर मानव-समाज और सभ्य मानव समाज आया है और सभ्य मानव-समाज भी क्रमशः दासता, सामन्तवादी एवं पूंजीवादी युगों को पार करता हुआ समाजवादी मानव समाज के युग आ गया है । जे. सी. कुमारप्पा नहोदय ने सभ्यता के परार्थवादी इतिहास क्रम को पांच अवस्थाओं में दिखाया है। पहले पराश्रयी-अवस्था (Predatory) है जिसका प्रतीक ब्याघ्र है, जो दूसरों को खाकर जीता है। फिर तस्कर-समाज (Parasitic) बना, जिसका प्रतीक बन्दर था। इन दोनों अवस्थाओं में बिना किसी श्रम के भोग (Consumption without production) का नियम था । तीसरी अवस्था में उद्योगी (Enterprising) समाज बना जिसका प्रतीक पक्षी था, जिसने अपने घोसले आदि बनाने का श्रमयुक्त जीवन विधान बनाया । चौथी अवस्था का प्रतीक मधुमक्खी है जिसका श्रम केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज के लिये भी होता है अन्त में हम सेवा-युग (Service stage)में आते हैं जहां हमारा जीवन माता की तरह दूसरों के लिये ही समर्मित है। हम देखते हैं कि मानव-समाज के विकासक्रम में उत्तरोत्तर अहिंसा का अधिकाधिक समावेश और हिंसा का क्रमिक निराकरकण होता गया है । समाज एवं राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों में "शक्ति सिद्धान्त" को
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