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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन नहीं अपितु प्राथमिक-विकास का भी सूत्र माना उसको भी शायद मानव के अन्तर्निहित संभाव्य सदगुणों में अटूट विश्वास था। मार्स ने शायद ईश्वर को भी इसलिये अस्वीकार किया कि उसे यह विश्वास था कि यदि परिस्थितियां अनुकूल बना दी जाएं तो इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित हो सकता है । यदि उसे मनुष्य की अन्तर्निहित दिव्यता में विश्वास नहीं रहता हो, फिर उसके परिष्कार के सारे क्रांतिकारी प्रयास सैद्धान्तिक रूप से निरर्थक होंगे ही, व्यावहारिक रूप से भी असफल होंगे। इसीलिये या तो हमें यह स्वीकार कर लेना होगा कि यदि मनुष्य स्वभाव से दुष्ट है तो फिर कोई भी वैचारिक क्रांति संभव नहीं।
स्वभाव तो वह होता है जो नित्य और निरपवाद होता है, जिसका निराकरण नहीं हो सकता । यदि मनुष्य स्वभाव से दुष्ट होता तो उसका निराकरण भी नहीं होता । अतः यदि हम मार्स के अनुसार वर्ग-संघर्ष के आधार पर मनुष्य-स्वभाव में संघर्ष को एक अवश्यम्भावी प्रक्रिया भी स्वीकार कर लें तो प्रश्न उठता है कि फिर मार्क्स स्वयं इस संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहते हैं ? आज समाज के अन्दर चोरी, बटमारी, लड़ाई, दंगे, हत्या, आदि जब होती हैं तो हमारा प्रयास उनका निराकरण करने का होता हैं । यदि यही हमारा स्वभाव होता तो हम इनके निराकरण का क्यों प्रयत्न करते ? हम अपने सामान्य दैनिक अनुभव में भी यह देखते हैं कि हमें क्रूर कर्मों से स्वाभाविक रूप से कष्ट होता है । इन सब बातों से यह प्रतीत होता है कि हमारी सम्पूर्ण सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक व्यवस्था का मूलाधार मानव को स्वभाव से अच्छ। मान लेने पर टिका हुआ है। राज्य शास्त्र के विकास क्रम में संसदीय-जनतन्त्र-प्रणाली की आधारशिला मानव-स्वभाव की साधुता के विश्वास पर ही टिकी हुई है । स्वस्थ जनतंत्र सामान्य मनुष्य के विवेक एवं सद्विचार पर तो आश्रित है ही साथ-साथ विरोधी-दलों की निष्ठा एवं आस्था में विश्वास भी इसका एक प्रमुख आधार स्तम्भ है । पुरातत्व विज्ञान के प्रागैतिहासिक ध्वंसावशेषों के अन्वेषणों से भी यह पता चला है कि उस समय भी सामाजिक जीवन था तथा उस समय आत्मरक्षा आदि के शस्त्रास्त्र नहीं थे। मानव-शरीर की रचना शाकाहारी प्राणियों जैसी ही है, इससे भी जीवन-निर्वाह के क्रम में प्रकट दुष्टता की संभावना अत्यल्प हो जाती है । यूनेस्को के तत्वाधान में मानव स्वभाव की खोजों के आधार पर प्रो. मांटेग्यू ने यह बताया है कि मानव जन्म से आक्रमण या अपहरण करने आदि के दुर्भाव लेकर जन्म नहीं लेता । जिस दुर्भाव को आज हम मानवस्वभाव में आरोपित करते हैं वह वास्तविक अर्थ में उसका जन्मजात स्वभाव नही बल्कि वातावरण से अर्जित विभावमात्र (Acquired habit) है । इसीलिये तो विधिशास्त्र जैसे परिवर्तन विमुख' स्थिति-स्थापक शास्त्र के अन्तर्गत
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