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________________ मानव समाज एवं अहिंसा ९९ विषय में भले ही विभिन्न विचार क्यों न हों। इसी तरह दार्शनिक जिज्ञासा का पर्यवसान धार्मिक जीवन-दर्शन में होता है। आध्यात्मिक विचारक प्रायः मानव को स्वभाव से दोष-मुक्त मानते हैं, क्योंकि जीवात्मा परमात्मा से या तो अभिन्न है, जैसा वेदान्त या उपनिषद् में माना गया है, या फिर जीवात्मा को परमात्मा का ही एक अंश मान लिया गया है। यदि हम सामान्य दार्शनिक दृष्टि से विचार करें तो सत्कार्यवाद का आलम्बन लेकर हम कह सकते हैं कि यदि मानव-स्वभाव में अच्छाइयां अन्तनिहित नहीं हैं तो फिर अच्छाइयों का स्वप्न देखना ही व्यर्थ है। Ex nihil nihil fit न सते विद्यते भावो न भावे विद्यते सतः । यदि मानव को स्वभाव से ही दुष्ट मान लिया जाय तो उसके शिक्षण एवं परिष्करण की सम्पूर्ण प्रक्रिया ही व्यर्थ सिद्ध होगी। यहीं हम मनोविज्ञान का सहारा लेकर मैकडूगल के आत्मरक्षात्मक मूल्य प्रवृत्ति के सिद्धान्त की चर्चा के क्रम में यह कह सकते हैं कि चूंकि कलह, पृथक्कत्व संग्रह आदि की मूल प्रवृत्तियां जन्मजात हैं इसलिये मानव की जन्मजात साधुता प्रमाणित नहीं होती । लेकिन जहां इस जीर्ण-शीर्ण मनोविज्ञान के मूल-प्रवृत्ति के सिद्धांत के अनुसार हम मनुष्य में जन्मजात कलह-वृत्ति का आरोप करते हैं वहां शायद हम संघात्मक-मूल्यप्रवृत्ति, दाम्पत्य मिलन, शिशु--रक्षण, आत्म-दमन आदि को मानव वृत्तियों को भूल जाते हैं । आज तो मनोविज्ञान की फ्रायडोत्तर भूमिका में मानवस्वभाव को दुष्ट मानने का भी कोई आग्रह नहीं हैं। नव-फ्रायडवादी मनोवैज्ञानिक मनोविश्लेषण को जीवशास्त्र की भूमिका पर पुनर्गठन करने के लिये चिन्तित हैं। एडलर की "जीवन शैली" एवं युग के जातीय अचेतन के अन्तर्गन आत्म-रक्षण एवं 'काम वृत्ति' के बदले मनोविश्लेषण जगत् आज मनुष्य की सामाजिक-सांस्कृतिक वृत्तियों में अपना समाधान ढूंढ़ने का प्रयास कर रहा है । इसीलिये तो डार्विन के जिस विकासवाद अन्तर्गत "अस्तित्व-संघर्ष" से आविर्भत “योग्यतम की रक्षा' आदि की दुहाई देकर मानव-स्वभाव को दुष्ट प्रमाणित किया जाता है उसी डार्विन ने नीति-बल को शरीर-बल' एवं बुद्धि बल दोनों से ही श्रेष्ठ माना है। उदाहरण देते हुए उसने कहा है कि जो जातियां अनीतिवान् थीं वे आज नामशेष हो गयी हैं । सोडम एव गमोरा का आज नामनिशां नहीं। जो यूनान कमी पौरुष के बुद्धि वैभव का सम्राट था जव उसने नीति का परित्याग किया तो उसकी बुद्धि ही उसका दुश्मन हो गयी। यह ठीक है कि हिरा विलटस हीगल, डाविन, मार्स आदि विचारकों ने संघर्ष को ही विकास की हरकत माना है, लेकिन जिस मार्क्स ने वर्गसंघर्ष का एक समग्र जीवन-दर्शन रखते हुए द्वन्द्व को विचार-विकास का ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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