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________________ ९८ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन हैं । यूनानी दर्शन का प्रयोजन मनुष्य को बुद्धिमान बनाना था जबकि चीनी परम्परा मानव को नीतिमान बनाने पर जोर देती है। भारतीय परम्परा में दर्शन का एक विशेष प्रयोजन रहा है, वह है जीव और ब्रह्म का साक्षात्कार, जिसे मोक्ष भी कहा जाता है । यहूदी विचारक मानव को यह अवगत कराना चाहते हैं कि ईश्वर भी मानव-कल्याण में अभिरुचि रखता है । इसलिये जहां यूनानी दर्शन में आदर्श भानव को विद्यानुरागी, चीनी परम्रा में आचारवान् साधु, भारतीय दृष्टि में आत्मतत्व माना गया है वहां यहूदी विचारकों ने आदर्श मानव को भगवान की प्रतिमा स्वीकार कर उसके जीवन में आदर्श सद्गुणों का समावेश किया है । लेकिन आदर्श मानव चाहे जैसा भी कल्पित किया गया हो, यथार्थ-मानव के वास्तविक स्वरूप का अध्ययन परमावश्यक है । नीति शास्त्र का इतिहास इस बात का साक्षी है कि विना किसी दैवी या ईश्वरीय गुणों का आरोप किये भी मानव-प्रकृति के आधार पर आचारशास्त्र का निर्माण किया गया है । मानव-स्वभाव का स्थूल अर्थ है उसका मनोदैहिक स्वरूप । सोफिस्टों एवं कुछ अंश में सुकरात को छोड़ कर यूनानी विचारक प्रायः मानव के इस मनोदैहिक स्वरूप का निष्पक्ष वैज्ञानिक अध्ययन करने के बदले एक नवीन जीवन-दर्शन के विकास की प्रक्रिया में संलग्न थे। किन्तु, चूंकि मानव समाज में रहता है, और यह मानव-समाज भी तो विराट विश्व का ही अंशमात्र है, इसलिये जगत को समझने के अन्वेषण क्रम में ही मानव-प्रकृति का भी अध्ययन हुआ । अत: मानव-स्वभाव की कोई स्वतन्त्र चर्चा अपेक्षित नहीं समझी गयी। यहूदी विचारकों ने मानव को विश्व की विशालता में विलीन तो नहीं किया किन्तु उसे ईश्वर-अंश मानकर उसके मनोदैहिक पक्ष के अध्ययन के साथ उसी प्रकार अन्याय किया । चीनी चिंतनधारा में प्राक्-कन्फ्यूशियस विचारकों ने मानव को देव अंश मानकर उसमें देवत्व का आरोप करते हुए उसके स्वभाव को नैतिक उद्घोषित किया किन्तु महात्मा कन्फ्यूशियस की यथार्थवादिता ने मानव-प्रकृति में सामाजिक-तत्व का आरोप करते हुए व्यवहार में उसे आत्म-केन्द्रित एवं व्यक्तिवादी बनाया। भारतीय परम्परा में उपनिषद्-तत्वज्ञान ने पंचकोष के अनुसार मानव-प्रकृति के आध्यात्मिक-मनोदैहिक पक्ष की ओर संकेत किया है। किन्तु बौद्ध विचारकों ने पंच-स्कन्ध के आधार पर कुछ दूसरी ही कल्पना की है। मीमांसा-दर्शन के अनुसार मानव-स्वभाव का सार कर्म है । (कर्ममयं पुरुषः)। संक्षेप में, उपनिषद्, सांख्य, योग एवं वेदान्त के अनुसार मानव आध्यात्मिकमनोदैहिक तत्व है जबकि न्याय-वैशेषिक-मीमांसा के अनुसार मानव को मूलतः केवल मनोदैहिक तत्व ही माना गया है, क्योंकि आत्मा में पूर्ण अज्ञान एवं अचेतना ही है । इस तरह हम देखते हैं कि भारतीय चिंतनधारा में मूलतः मानव को आत्म-तत्व माना गया है चाहे आत्म-तत्व के स्वरूप के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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