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मानव समाज एवं अहिंसा
१. प्रश्न, परिप्रश्न और बोध :
बिहार की पदयात्रा में जब मैंने आचार्य विनोबा से यह प्रश्न किया कि "क्या मानव समाज का संगठन अहिंसा के आधार पर संभव है ?" तो उन्होंने इसके उत्तर में मुझसे ही पूछा, "क्या मानव समाज का संगठन हिंसा के आधार पर भी संभव है ?" फिर स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा "आपका मूल प्रश्न ही वास्तव में उलटा है । यदि आप ऐसा प्रश्न करते कि "क्या बाघ, सिंह, भेड़िये अदि हिंस्र पशुओं का संगठन अहिंसा के आधार पर संभव हैं तो बहस की भी गुंजाइश थी।" इसका अर्थ यह हुआ कि विनोबा सदृश विचारक मनुष्य को स्वभाव से साधु मान बैठे हैं । लेकिन "मनुष्य स्वभाव से साधु है"- यह एक आदर्श वाक्य भी हो सकता है और यथार्थ वाक्य भी। जो भी हो, मानव-स्वभाव का प्रश्न मानव-शास्त्र का मूल प्रश्न तो है ही, प्रस्तुत विषय का भी आधार-प्रश्न है । मानव-स्वभाव की हमारी कल्पना या धारणा हमारे जीवन दर्शन को प्रभावित करती है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब यहूदी विचारधारा ने मानव को ईश्वर को प्रतिमा मान लिया तो उससे केवल यहूदी जीवन-दर्शन ही प्रभावित नहीं हुआ बल्कि यहूदी दर्शन से प्रभावित ईसाई एवं बहुत हद तक इस्लामी मतवाद भी प्रभावित हुए थे । इसी प्रकार आत्म-तत्व की कल्पना ने भारतीय-दर्शन को एक नयी मोड़ ही दे दी है। उसी तरह मानव-स्वभाव के प्रति नैतिक एवं सामाजिक आग्रह से चीन के ताओ और बौद्ध धर्म को एक नयी वास्तविकता मिली है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि मानव-स्वभाव का प्रश्न केवल समाज-दर्शन का ही प्राण-तत्त्व नहीं है, यह सम्पूर्ण दर्शन का भी आधार तत्त्व है। दर्शन का वास्तविक अर्थ जीवन-दर्शन ही माना जाना चाहिए और जीवनदर्शन का मेरुदंड मानव-प्रकृति का अध्ययन है । दर्शन के समस्त शृंगार मानव केन्द्रित होंगे सत्य एवं मूल्य भी मानव के सन्दर्भ में ही सार्थक होंगे। २. मानव स्वभाव : प्रश्न का प्राणतत्व :
दुर्भाग्य से 'मानव-स्वभाव' के विषय में हम प्राय: सभी विराट दार्शनिक परम्पराओं में तटस्थ वैज्ञानिक वृत्ति से किये गये विश्लेषण का ! नितान्त अभाव ही पाते हैं । इस सम्बन्ध में दार्शनिकों की दृष्टि मुख्यतः
आदर्शमूलक और आध्यात्मिक रही है। विभिन्न दर्शनों की विभिन्न परम्परायें
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