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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
अहिंसा के आधार पर मानव-संबंधों और मानव-संगठनों को स्थापित नहीं किया जायगा तब तक हिंसा की जड़े समाप्त नहीं होंगी। व्यक्ति ही मानवसमाज की इकाई है। यह उसी के मस्तिष्क की चाल है कि वह हिंसक समाज-व्यवस्था का निर्माण करता है। इसलिये अहिंसक-समाज-व्यवस्था के निर्माण के लिये यह आवश्यक है, अहिसक मानव-मस्तिष्क का निर्माण
२. समस्या का मूलाधार :
___ "आयारो" वास्तव में "आत्म-जिज्ञासा" से आरंभ होता है, जो दूसरे शब्दों में या "मानव-जिज्ञासा" का पर्याय है। आत्म-जिज्ञासा ही आचारशास्त्र का आधारभूत तत्त्व है। भगवान महावीर ने जिस अहिंसात्मक समाज रचना का स्वप्न देखा एवं जिस अहिंसक जीवन-शैली का निरूपण किया, उसकी आधार आत्मा है । आत्मा के स्पष्ट रूप का बोध होने पर ही अहिंसात्मक आचार नीति में आस्था हो सकती हैं। इसलिये "आचारांग' के आरंभ में ही' "आत्मा का अस्तित्व" स्थापित किया गया है। "मैं कौन हूं' (कोऽहम्) यदि आत्म-जिज्ञासा का सूचक है तो "मैं वह (आत्मा) हूं" (सोऽहम्) यह उसका समाधान है। प्रथम पद में अपने अस्तित्व की जिज्ञासा है और दूसरे पद में उसका प्रत्यक्ष बोध है। अनात्मवादी भी "आत्मा' को भले नहीं स्वीकार करें, किंतु आत्मरूप चेतना से इनकार नहीं करते। चेतन की क्रिया प्रत्यक्ष है, अतः उसकी अस्वीकृति से भी प्रकारान्तर से उसके अस्तित्व की स्वीकृति हो जाती है। 'हां, उसके त्रैकालिक अस्तित्व के विषय में मतभेद रहा है। जो भी हो, आज की मूल समस्या है-आत्मा को जानना; चाहे वह ज्ञान-चेतना हो या अनुभव-चेतना। प्रसिद्ध दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक सी० जी० युग ने भी—"आत्मानुसंधान की दिशा में आधुनिक मानव" (Modern Man in Search of a Sool) की अवधारणा पुष्ट की है। मानव ही जागतिक समस्याओं का केन्द्र है, वही समाज को इकाई है। यदि उसके मानस का परिष्कार हो जाय तो समस्यायें ही नहीं उठेगी । हिंसा या अहिंसा दोनों का ही अधिष्ठान मानव-मस्तिष्क और उसकी चेतना है । यूनेस्को के घोषणा पत्र में ठीक ही कहा गया है कि यदि युद्ध में व्यूहरचना एवं योजना मानव-मस्तिष्क से ही होती है अतः शांति की प्रतिरक्षा का निर्माण भी मानव-मन से ही होगा।
लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हम मानव और मानव की चेतना को पूरी तरह समझने का प्रयास नहीं करते कि (क) मानव कहां से आया है ? १. आयारो, १/१ २. वही, १/४
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