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अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं एवं आयारो
९३ (ख) मानव का गन्तव्य क्या है ? (ग) मानव का अतीत क्या होगा ? (घ) उसका भविष्य क्या होगा? "मैं आत्मा हूं" यह अतीत और वर्तमान का संकलनात्मक ज्ञान है। शरीर अहंकार शून्य है। उसमें जो अहंकार है, जैसे- "मैं करता हूं" "मैंने किया" और "मैं करूंगा", वही आत्मा (चेतन) का लक्षण है।
आत्मा अपने स्वरूप में अमूर्त है । वह इंद्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता है, वह शरीर के माध्यम से ही जाना जाता है। जैसे आत्मा का अस्तित्व है, वैसे लोक का अस्तित्व है। अतः आत्मा और लोक, दोनों पारमार्थिक सत्ताएं हैं । शरीर-तंत्र कर्म से संचालित होता है । कर्म-तंत्र क्रिया से संचालित होता है। अतः इस संसार की विविधता का मूल हेतु क्रिया है। जीव में जब तक प्रकंपन, स्पन्दन, क्षोभ और विविध भावों का परिणमन होता है, तब तक वह कर्म-परमाणुओं से बन्धता रहता है । जब वह कर्म-परमाणुओं से बद्ध होता है, तब तक वह नाना योनियों में अनुसंचरण करता है। इस लोक में अपनी आत्मा जैसी अनेक आत्माएं हैं और पुद्गल द्रव्य भी हैं । अन्य आत्माओं के प्रति अपने व्यवहार का संयम करना अहिंसा का मूलाधार है। इस तरह अहिंसा के मुख्य चार आधार है-आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद, और क्रियावाद ।
__ अहिंसा के दो स्वरूप हैं -सूक्ष्म और बाह्य । प्रवृत्ति का मुख्य स्त्रोत अन्तःकरण है । वह प्रज्ञा से संचालित होता है। उसके नियामक तत्त्व दो हैं -मोह और निर्मोह । मोह से नियंत्रित प्रज्ञा असत्य होती है, निर्मोह से सत्य । जिसकी प्रज्ञा सत्य होती है, वह शरीर वाणी और भाव से ऋजु तथा कथनी और करनी में समान होता है । इस प्रकार सत्य प्रज्ञा से संचालित अंतःकरण ही हिंसा और विषय से विरक्त हो सकता है। कोई भी साधक केवल बाह्याचार से हिंसा और विषय से विरत नहीं हो सकता। पूर्ण सत्य प्रज्ञा युक्त अन्तःकरण से ही वह उनसे विरक्त हो सकता है ।
इस दृष्टि से विचार करें तो यह लगेगा कि जब तक अन्तर में महिंसा प्रतिष्ठित नहीं करेंगे तब तक जागतिक हिंसा का निराकरण असंभव है। युद्ध की योजनायें मानव-मस्तिष्क में ही बनती हैं अतः शांति की प्रतिरक्षा भी भी मानव मन से तैयार होंगी । आत्मा का सच्चा ज्ञान ही हिंसा से हमें विरत कर सकता है । "आयारो" ने इसलिये हिंसा-विवेक पर गंभीर चिंतन किया
१. आयारो १/५ २. वही, १/१७५ ३. वही, १/३१-३४, ५४-६२, ८५-८९, ११४-११७, १७६-१७७, २.४६
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