________________
अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं एवं आयारो
विश्व धर्म (Universal Religion) साम्प्रदायिक धर्म (Communal Religion) के बदले मानव धर्म (Religion of Man) या नीति-धर्म (Ethical Religion) की आंकाक्षा प्रबल हो रही है किन्तु यह विरोधाभास है कि व्यवहार में धार्मिक कट्टरतावाद एवं धार्मिक मूल प्रमाणवाद (Religions Funda-menatalism) का जोर बढ़ा है। राजनीति के क्षेत्र में आज राष्ट्रीय संप्रभुता के सिद्धांत के बदले "विश्व-सरकार" एवं “एक विश्व" (One world) की बातें खूब चल रही हैं। साम्यवाद हो या शांतिवाद, सब सार्वभौम होना चाहता है किंतु व्यवहार में संकीर्ण और उग्र राष्ट्रवाद का दर्शन हो रहा है। अखंड अन्तर्राष्ट्रीयता का विचार रखने वाला साम्यवाद स्वयं भ्रातृयुद्ध का शिकार हो गया है । उसी प्रकार आर्थिक क्षेत्र में आज "विश्व-अर्थव्यवस्था" (World Economic Order) अनिवार्य माना जाने लगा है किन्तु प्रत्यक्ष व्यवहार में एक रूप से राष्ट्र का दूसरे द्वारा शोषण और भी अधिक संगठित एवं गंभीर हो रहा है। यही कारण है कि बीसवीं सदी का विश्व सम्पन्नता के मध्य अकिंचनता, ज्ञान-विज्ञान में महत्तर विकास के साथ-साथ अज्ञान और अशिक्षा के प्रभूत अंधकार का शिकार बन गया है । शायद हमारी खंडित सभ्यता की यही पहचान है।
प्रथम विश्वयुद्ध के मात्र २०-२१ वर्षों के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध की विनाश लीला प्रारम्भ हो गयी जिसकी क्षणिक अत्यन्त निष्ठुर पूर्णाहुति हिरोशिमा-नागाशाकी के रोमांचकारी नरसंहार से हुई और अणुबम निर्माण की अदम्य पिपासा जितनी ही सार्वभौम होती जा रही है, मानव सभ्यता के अस्तित्व नाश की संभावना उतनी ही बढ़ती जा रही है। इसलिये निःशस्त्रीकरण की अंतहीन वार्ता में अपने को फंसा कर समस्या के समाधान की ओर बढ़ने का मिथ्या आत्म-तोष हम प्राप्त कर लेते हैं। असल में हम रोग के लक्षण को ही उसका कारण समझ लेते हैं और वास्तविक कारण ढूंढने का प्रयास नहीं करते । राजनीतिक समाधान कूटनीति के कृत्रिम धरातल पर होने के कारण न केवल अयथार्थ हो जाता है बल्कि उसमें विरोधाभास भी बहुत अधिक रहता है। राजनेता-समस्याओं के तात्कालिक एवं सतही समाधान की सीमाओं को लांघ कर विश्व की आधारभूत एवं क्रांतिकारी पुनर्रचना की ओर अग्रसर होने का साहस नहीं कर सकते ।
यह भी हमारा एक अंधविश्वास है कि हिंसा केवल अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग, हत्या और रक्तपात में ही निहित है। हिंसा की जड़ें तो हमारी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था में निहित है। संक्षेप में सिद्धान्तहीन राजनीति , संकीर्ण राष्ट्रवाद, मिकियाविली अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति, शोषण एवं मुनाफा केन्द्रित अर्थनीति विषमता मूलक समाज-रचना, हिंसा-प्रवण शिक्षा नीति ये सब हिंसा की जननी हैं। अत : मूल समस्या है कि जब तक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org