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जीव-अजीव
१३. अभ्याख्यान पाप-मिथ्या आरोप लगाने से आत्मा के साथ चिपकने
वाला पुद्गल-समूह। १४. पैशुन्य पाप-चुगली करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह । १५. पर-परिवाद पाप-निंदा करने से आत्मा के साथ चिपकने वाला
पुद्गल-समूह। १६. रति-अरति पाप-असंयम में रुचि और संयम में अरुचि रखने से आत्मा
के साथ चिपकने वाला पुद्गल-समूह। १७. मायामृषा पाप-माया सहित झूठ बोलने से आत्मा के साथ चिपकने
वाला पुद्गल-समूह। १८. मिथ्यादर्शनशल्य पाप-विपरीत श्रद्धारूपी शल्य से आत्मा के साथ चिपकने
वाला पुद्गल-समूह।
ये भेद वास्तव में पाप तत्त्व के नहीं किन्तु जिन कारणों से पाप-कर्म बन्धता है, उन कारणों के अनुसार बध्यमान अवस्था की अपेक्षा से पाप को अठारह भागों में विभक्त किया गया है। प्राणों का वियोग करना योग आश्रव कहलाता है और प्राण-वियोग करने से जो कर्म बन्धता है, वह प्राणातिपात पाप कहलाता है। उस पुदगल-समूह का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने का हेतु प्राण-वियोजन है। यदि आत्मा के द्वारा प्राण-वियोजन नहीं किया जाता, तो वह पुद्गल-समूह भी आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं कर सकता, अतः उस क्रिया से जो कर्म बन्धता है, वह उसी क्रिया के नाम से पुकारा जाता है।
जिस कर्म के उदय से जीव हिंसा करता है, असत्य बोलता है तथा उसी प्रकार अन्य पाप करता है, उस कर्म को प्राणातिपात पाप-स्थान, मृषावाद पाप-स्थान आदि कहा जाता है। ५. आश्रव
__कर्म ग्रहण करनेवाली आत्मा की अवस्था को आश्रव कहा जाता है। वह जीव की अवस्था है, अतः जीव है। आत्मा द्वारा जो कर्म-पुद्गल ग्रहण किए जाते हैं, वे अजीव हैं। आश्रव के मुख्य भेद पांच हैं :
१. मिथ्यात्व आश्रक-विपरीत श्रद्धान, तत्त्व के प्रति अरुचि । २. अव्रत आश्रक-अत्याग भाव। पौद्गलिक सुखों के प्रति अव्यक्त लालसा ।
३. प्रमाद आश्रक-धर्म के प्रति अनुत्साह । प्रमाद आश्रव की व्याख्या प्रायः निद्रा, विकथा आदि पांच प्रमाद के रूप में उपलब्ध होती है और इस परिभाषा से योग-आश्रव तथा प्रमाद आश्रव में कोई भेद ही नहीं रहता।
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