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सम्बन्ध होने से वस्तु का जो स्वरूपमात्र ग्रहण किया जाता है, उसे अवग्रह कहते हैं । वह दो प्रकार का है--व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह |
शब्द आदि के साथ उपकरण - इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है, उसे व्यंजन कहते हैं। उसके द्वारा जो शब्द आदि का अस्पष्ट ज्ञान होता है, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। व्यंजनावग्रह होने के बाद और कहीं-कहीं (चक्षु और मन के बोध में) उसके अभाव में भी व्यंजनावग्रह से कुछ स्पष्ट अनिर्देश्य सामान्य मात्र अर्थ का ग्रहण होता है, जैसे- यह कुछ है-- ऐसे जो ज्ञान होता है उसे अर्थावग्रह कहते हैं ।
ईहा- अवग्रह के द्वारा जाने हुए पदार्थों की विशेष आलोचला करने का नाम है -- ईहा । अवग्रह से किसी दूरस्थित वस्तु का ज्ञान होने पर संशय होता है कि यह दूरस्थ वस्तु क्या है? मनुष्य है या और कुछ? सिर के हिलने-डुलने एवं हाथ पैरों की क्रिया आदि दृश्यमान लक्षणों से- यह मनुष्य ही होना चाहिए - ऐसा जो ज्ञान होता है, वह ईहा कहलाता है ।
जीव-अजीव
अवाय-ईहा के द्वारा जाने पदार्थों में यह यही है, दूसरा नहीं - ऐसे निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं।
धारणा - अवाय से जाना हुआ पदार्थ ज्ञान जब इतना दृढ़ हो जाए कि कालान्तर में भी उसका विस्मरण न हो, तो उसे धारणा कहते हैं।
अवग्रह आदि के द्योतक दूसरे शब्द :
अवग्रह-- प्राथमिक ज्ञान ।
अवाय निश्चय ।
ईहा-- विचारणा ।
धारणा - - इन्द्रिय ज्ञान की स्थितिशीलता
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा -- ये चारों पर्याय को ग्रहण करते हैं, सम्पूर्ण द्रव्य को नहीं । उसे वे पर्याय के द्वारा ही जानते हैं। इन्द्रिय और मन का मुख्य विषय पर्याय ही है। नेत्र ने आम को ग्रहण किया, इसका अर्थ इतना
है कि नेत्र ने आम देखा । सम्पूर्ण आम को ग्रहण नहीं किया । आम में रूप और आकार के सिवाय स्पर्श, रस, गंध आदि अनेक पर्याय हैं, जिनको जानने में नेत्र असमर्थ हैं। इसी प्रकार स्पर्शन, रसन और घ्राण इन्द्रिय क्रमशः किसी वस्तु के स्पर्श, रस एवं गंध- पर्याय को ही जान सकती हैं । कोई भी एक इंद्रिय उस वस्तु के सम्पूर्ण पर्यायों को नही जान सकती । मन भी किसी वस्तु के खास अंश का ही विचार कर सकता है। एक साथ सम्पूर्ण अंशों का विचार
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